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________________ 'आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा परिच्छेद-2 |जयोदय महाकाव्य की समीक्षा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (वि. संवत् 1994 तथा सन् 1937 ई.) में राजस्थान वीरभूमि के सपूत बाल ब्रह्मचारी वाणी-भूषण श्री भूरामल शास्त्री खण्डेलवाल ने अद्वितीय ‘जयोदय महाकाव्य' की रचना करके पूर्ववर्ती दो शताब्दियों की शुष्क काव्यधारा को पुनः प्रवाहित किया। इसमें जिनसेन प्रथम द्वारा प्रणीत महापुराण में पल्लवित ऋषभदेव-भरतकालीन जयकुमार एवं सुलोचना के पौराणिक कथानक को पुष्पित किया गया है। यह महाकाव्य 28 सर्गों में निबद्ध है। इसका नामान्तर 'सुलोचना स्वयंवर महाकाव्य' भी है। जयकुमार एवं सुलोचना की कथा प्रतिपादक अन्य रचनाएँ भी हैं। जैसे - (1) महासेनकृत सुलोचना कथा (वि. सं. 800) (2) गुणभद्रकृत महापुराण के अन्तिम पाँच पर्व (वि.सं. 900) (3) हस्तिमल्लकृत विक्रान्त कौरव अथवा सुलोचना नाटक (वि. सं. 1250)। (4) वादिचन्द्र भट्टारककृत सुलोचनाचरित (वि. सं. 1671)1 (5) ब्र. कामराज-प्रणीत जयकुमारचरित (वि. सं. 1710) तथा (6) ब्र. प्रभुराज विरचित जयकुमारचरित। जयोदय महाकाव्य साहित्य-जगत में 20वीं शताब्दी का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य तो है ही, साथ ही जैनदर्शन में 14 वीं शताब्दी के बाद का प्रथम महाकाव्य भी है। इसमें 3047 पद्य और 28 सर्ग हैं। इस का प्रकृति-चित्रण माघ के काव्यों की तुलना करने के लिये प्रेरित करता है। इस महाकाव्य रूपी सागर की तलहटी साहित्य है, तो दर्शन उसके किनारे और रस अलंकार आदि की छटा अपार जल-राशि के रूप में दृष्टिगोचर होती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आदि आचरणपरक अनेक सूत्ररूपी रत्नों का भण्डार इस जयोदय महाकाव्य-रूपी सिन्धु में भरा पड़ा है तथा यह महाकाव्य रस, अलंकार एवं छन्द की त्रिवेणी से पवित्रता को
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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