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श्रवणधर्म में तीर्थकर परम्परा और भ. महावीर तथा महावीर चरित-साहित्य......
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मूलकथा के साथ प्रासंगिक कथाओं का गुम्फन किया जाना कवि की घटना-परिकलन के कौशल का द्योतक है। अवान्तर कथाओं के अतिरिक्त अधिकारी का कथानक बहुत संक्षिप्त और सरल है। धनदेव सेठ एक दिव्य मणि की सहायता से चित्रवेग नामक विद्याधर को नागों के पास से छुड़ाता है। दीर्घकालीन विरह के पश्चात चित्रवेग का विवाह उसकी प्रियतमा के साथ हो जाता है। वह सुरसन्दरी को अपने प्रेम, विरह और मिलन की कथा सुनाता है। सुरसुन्दरी का विवाह भी मकरकेतु के साथ सम्पन्न होता है। अन्त में वे दोनों दीक्षा लेते हैं।
काव्य का नामकरण सुरसुन्दरी नाम की नायिका के नाम पर हुआ। समस्त कथावस्तु नायिका के चारों ओर घूमती है। इसमें सन्देह नहीं है कि कवि ने नायिका का रूप, अमृत, पद्म, सुवर्ण, कल्पलता एवं मन्दार-पुष्पों से संभाला है। वास्तव में यह नायिका कवि की अदभुत मानस-सृष्टि है। इसमें नायिका के जीवन के दोनों पहलुओं को उपस्थित किया गया है।
वस्तु-वर्णनों में भीषण अटवी, मदन-महोत्सव, वर्षा-ऋतु, वसन्त, सूर्योदय, सूर्यास्त, पुत्र-जन्मोत्सव, विवाह, युद्ध, नायिका के रूप सौन्दर्य, उद्यान-क्रीड़ा आदि का समावेश है। वर्णनों को सरस बनाने के लिये लाटानुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का भी उचित प्रयोग किया है। सुपासनाहचरियं
सुपासनाहचरियं चरितकाव्य के रचयिता लक्ष्मण गणि हैं। इस ग्रन्थ की रचना धंधुकनगर में आरम्भ की गई थी, परन्तु इसकी समाप्ति कुमारपाल के राज्य में मण्डलपुरी में की गई । लक्ष्मण गणि ने विक्रम संवत् 1199 में माघ शुक्ला दशमी गुरूवार के दिन इसको समाप्त किया।
इस चरितकाव्य के नायक सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ हैं। लगभग आठ हजार गाथाओं में इस ग्रन्थ की समाप्ति की गई है। समस्त काव्य तीन भागों में विभक्त हैं- पूर्वभव प्रस्ताव में सुपार्श्वनाथ के पूर्वभवों का वर्णन किया गया है और शेष प्रस्तावों में उनके वर्तमान जीवन का वर्णन है।