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वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
मदिरा-पान भी एक ऐसी बुराई है, जिसमें अनन्त जीवों का घात तो होता ही है, नशाकारक होने से वह विवेक को भी नष्ट करती है। अतः मांसाहार के समान मदिरापान का निषेध भी आवश्यक है। वीरोदय में शाकाहार-महत्त्व व मांसाहार-त्याग वर्णन
शाकाहार-महत्त्व व मांसाहार-त्याग का विवेचन अध्याय तृतीय में गृहस्थ-धर्म व मुनि-धर्म के वर्णन के अन्तर्गत विस्तृत रूप से किया जा चुका है। यहाँ मांसाहार त्याग से यह समझना चाहिए कि जो विषयों के लोलुपी हैं वे जीव-हिंसा को स्वीकार करते हैं और जो पवित्र मन वाले बुद्धिमान मानव हैं, वे अहिंसा भगवती की आज्ञा पालकर इन्द्रिय विषयों को जीत कर सर्वात्म–प्रिय बन जाते हैं।
आ. अमृतचन्द्र ने पुरूषार्थसिद्धयुपाय में अनेक युक्तियों से मांसाहार का निषेध किया है। न बिना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा।। 65 ।। यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिमर्थनात् ।। 66 || आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यामानासु मांसपेशीषु। सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ।। 67 ।।
-पुरू.सि.उ.। ___जैन परिभाषा के अनुसार त्रस जीवों के शरीर के अंश का नाम ही मांस है। दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव "त्रस" कहलाते हैं। त्रस जीवों के घात से मांस की उत्पत्ति होती है। कच्ची, पक्की अथवा पक रही मांस-पेशियों में निरन्तर ही अनन्त तज्जातीय निगोदिया जीव उत्पन्न होते रहते हैं। अतः मांस खाने में न केवल एक जीव की हिंसा होती है, अपितु अनन्त जीवों की हिंसा का पाप होता है।
भारतीय ऋषि-मुनि, कपिल, व्यास, पाणिनी, पतंजलि, शंकराचार्य