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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन को अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। जब तक कर्म नहीं कटते तब तक उसे बार-बार जन्म लेकर फल भोगना पड़ता है। इस तरह जीव का कर्मचक्र, जन्म-मरण के रूप में चलता रहता है। इसी को कर्म-सिद्धान्त कहते हैं।
कर्मबन्धन से छूटे बगैर आत्मा मुक्त नहीं होता। संसारी जीवों के राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। उन परिमाणों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषय ग्रहण करते हैं। विषय ग्रहण करने से इष्ट विषयों से राग और अनिष्ट विषयों से द्वेष होता है। इस प्रकार संसारी जीवों के भावों के कर्मबन्ध से रागद्वेषरूप भाव रहते हैं। इसी से जीव अनादि काल से मूर्तिक कर्मों से बंधा है, जिससे वह अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक बना रहता है।
जैन दार्शनिकों का कहना है कि कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। जैसे - शराब पीने पर नशा स्वयं होता है। कर्म करते समय यदि जीव का भाव शुद्ध होता है, तो बंधने वाले कर्म परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। उनका फल भी शुभ होता है और यदि भाव अशुद्ध हुए तो फल अशुभ होता है। जिस तरह मन के क्षोभ का प्रभाव भोजन पर पड़ता है, भोजन ठीक से नहीं पचता है, उसी तरह मानसिक भावों का प्रभाव अचेतन वस्तुओं पर पड़ता है। सामान्यतः कर्मों में भेद नहीं है किन्तु द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा से कर्म के दो भेद हैं। ज्ञानावरणादि रूप पुदगल का पिंड द्रव्यकर्म है और इस द्रव्यपिंड में फल देने की जो शक्ति है वह भाव कर्म है। वीरोदय में कर्म सिद्धान्त - वीरोदय में एक उद्धरण द्वारा कर्मसिद्धान्त को स्पष्ट किया गया है। जैसे- सुवर्ण-पाषाण में सुवर्ण और कीट-कालिमादि सम्मिश्रण अनादि-सिद्ध है, कभी किसी ने उन दोनों को मिलाया नहीं है किन्तु अनादि से वे स्वयं दोनों ही मिले चले आ रहे हैं। वैसे ही जड़ पुदगल और चेतन जीव का विचित्र सम्बन्ध भी अनादि काल से चला आ रहा है। यही कर्म सिद्धान्त है।