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________________ अध्याय श्रमणधर्म में तीर्थंकर परम्परा और भगवान महावीर तथा महावीर चरित साहित्य का विकास और महत्व परिच्छेद श्रमण धर्म और तीर्थकर परम्परा - 1 - 1 श्रमणधर्म जैनधर्म आत्म-दर्शन के रूप में उस समय से प्रतिष्ठित रहा है, जब से आत्म-विजय की प्रवृत्ति का प्रारम्भ हुआ। वेदत्रयी के परवर्ती साहित्य में जिन और जैनमत के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस काल में आकर लोग इस धर्म को जैनधर्म और इसके पुरस्कर्त्ताओं को 'जिन' नाम से व्यवहृत करने लगे थे, योगवाशिष्ठ' श्रीमद्भागवत' विष्णुपुराण', शाकटायन व्याकरण', पद्मपुराण' मत्स्यपुराण' आदि में जिन, जैनधर्म आदि नामों से उल्लेख मिलता है । प्राचीन साहित्य में जैनधर्म के लिये 'श्रमण' - शब्द का भी प्रयोग मिलता है । दशवैकालिक - सूत्र की 173 टीका में आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'श्रमण' - शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है'श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्ते इत्यर्थः । अर्थात् जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है, वह श्रमण है 1 श्रीमद्भागवत में श्रमणों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जो वातरशन उर्ध्वमन्थी श्रमण मुनि हैं, वे शान्त, निर्मल, सम्पूर्ण परिग्रह से सन्यस्य ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं । 'श्रमणाः दिगम्बराः श्रमणाः वातरशनाः' "श्रमण" दिगम्बर निर्ग्रन्थ मुनियों को कहा जाता था । भारत में श्रमणों का अस्तित्व अति प्राचीनकाल से पाया जाता है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार 'श्रमण - परम्परा के कारण ब्राम्ह्मण-धर्म में वानप्रस्थ और सन्यास को प्रश्रय मिला ।' जैनधर्म में श्रमण और व्रात्य शब्दों के समान
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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