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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
उत्तरीय – ओढ़ने वाले चादर को उत्तरीय कहा जाता था। अमरकोश में उत्तरीय को ओढ़ने वाले वस्त्रों में गिनाया है। परिधान - अमरकोशकार ने नीचे पहनने वाले वस्त्रों में परिधान की गणना की है।
'अन्तरीयोपसंव्यान परिधानान्यधोंशुके।
बुन्देलखण्ड में अभी भी धोती को पर्दनी या परदनिया कहा जाता है, जो इसी परिधान शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। उपधान - सोमदेव ने तकिए के लिए उपधान शब्द का प्रयोग किया है। यह संस्कृत का अत्यन्त प्रचलित शब्द है। अमृतमती के अन्तःपुर में पलंग के दोनों ओर दो तकिए रखे थे, जिससे दोनों किनारे ऊँचे हो गये थे। 'उपधानद्वयोत्तम्भितपूर्वापरभागम् । वितान - वीरोदय में वितान शब्द आये हैं। आचार्यश्री ने लिखा है कि नगर में गगनचुम्बी शिखरों पर लगे सुवर्ण-कलशों की कान्ति से सूर्य-चन्द्रमा भी लज्जा का अनुभव कर रहे थे।
वीरोदय महाकाव्य में कवि ने देवियों द्वारा माता के श्रृंगार वर्णन में धुंघराले वाले का जूड़ा बनाने, पुष्पहार पहनाने, बाहुबन्ध बाँधने, कंगन बाँधने आदि का तो वर्णन किया है, परन्तु वस्त्रों के विषय में मात्र माता को उत्तम वस्त्र प्रदान किये-ऐसा ही वर्णन किया हैं। रहन-सहन पद्धति
आदिपुराण के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने समाज-व्यवस्था की आधारशिला रखी। जो लोग शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ और शक्ति सम्पन्न थे, उन्हें प्रजा की रक्षा, सन्तों के पालन एवं दुष्टों के निग्रह कार्य में नियुक्त कर 'क्षत्रिय' की संज्ञा दी। जो कृषि, पशुपालन व वस्तुओं के क्रय-विक्रय (वाणिज्य कला) में निपुण थे, उन्हें “वैश्य-वर्ण" की संज्ञा दी। जिनमें ये दोनों कलायें नहीं थी, जिन्होंने इन दोनों वर्गों की सेवा की अभिरूचि प्रकट की, उन्हें “शूद्र" की संज्ञा दी। इस प्रकार गुण कर्म के अनुसार वर्ण-विभाजन हुआ।