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264 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
पारस्परिक द्वेषभाव, गुटबन्दी, वर्गभेद, जातिभेद आदि अनुशासनहीनता को बढ़ावा देते हैं और सामाजिक संगठन को शिथिल बनाते हैं। अतः सहज और स्वाभाविक कर्त्तव्य के अन्तर्गत अनुशासन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। अनुशासन जीवन को कलापूर्ण, शान्त और गतिशील बनाता है। इससे परिवार और समाज की अव्यवस्थाएँ दूर होती हैं। अहिंसा, करूणा, समर्पण, सेवा-प्रेम, सहिष्णुता आदि के द्वारा ही पारिवारिक चेतना का सम्यक् विकास होता है। जन्म लेते ही मनुष्य पारिवारिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों/उत्तरदायित्वों से बँध जाता है। प्राणी मात्र एक दूसरे से उपकृत होता है। जब हम किसी का उपकार स्वीकार करते हैं, तो उसे चुकाने का दायित्व भी हमारे ऊपर ही रहता है। यह आदान-प्रदान की सहजवृत्ति ही मनुष्यता, पारिवारिकता और सामाजिकता का मूल केन्द्र है। उसके सभी कर्तव्यों एवं धर्माचरणों का आधार भी है। राग और मोह आत्मा के लिए त्याज्य हैं, पर परिवार और समाज संचालन के लिए इनकी उपयोगिता है। जीवन सर्वथा पलायनवादी नहीं है। जो कर्मठ बनकर श्रावकाचार का अनुष्ठान करना चाहता है, उसे अहिंसा, सत्य, करूणा, सेवा-समर्पण आदि के द्वारा परिवार और समाज को दृढ़ करना चाहिए। दृढ़ीकरण की यह क्रिया ही दायित्वों या कर्त्तव्यों की श्रृंखला है।
आचार्यश्री ने वीरोदय महाकाव्य में राजा सिद्धार्थ का वर्णन करते हुये लिखा है कि उस राजा के राज्य में प्रजा पूर्ण सुखी व अनुशासित थी। यथा -
रवेर्दशाऽऽशापरिपूरकस्य करैः सहस्रैर्महिमा किमस्य । समक्षमेकेन करेण चाशासहस्रमापूरयतः समासात् ।। 3 ।।
-वीरो.सर्ग.3। अपने सहस्र करों (किरणों) से दशों दिशाओं को परिपूर्ण करने वाले सूर्य की महिमा इस सिद्धार्थ राजा के समक्ष क्या है ? जो कि एक ही कर (हाथ) से सहस्रों जनों की सहस्रों आशाओं को एक साथ परिपूर्ण कर देता है।