________________
258
258 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन अर्थ व्यवस्था
किसी भी राज्य की अर्थ-व्यवस्था का ज्ञान उस राज्य के बाजारों की समृद्धि, पशुपालन व्यवस्था तथा उत्पादन क्षमता के आधार पर किया जा सकता है। यह सत्य है कि राजाओं का बल राजकोष होता है जिसके बिना राज्य की समृद्धि संभव नहीं है।
वीरोदय में भी तत्कालीन अर्थव्यवस्था का कोई विशद परिचय तो नहीं मिलता, किन्तु इतना पता अवश्य चलता है कि तत्कालीन अर्थव्यवस्था अत्यन्त सुदृढ़ थी। भ. ऋषभदेव ने जो षट्कर्मों की शिक्षा अपने काल में दी थी, वह इस काल तक न केवल अत्यन्त विस्तार को बल्कि अत्यन्त गहनता को भी प्राप्त हो चुकी थी। वीरोदय की अर्थ व्यवस्था के बिन्दु इसप्रकार हैं - 1. बाजार
वीरोदय (सर्ग-2) में वर्णित बाजारों की समृद्धि का ज्ञान इस बात से होता है कि वहाँ नगर के बाजारों में दुकान के बाहर पग-पग पर लगाये गए स्तूपाकार रत्नों के ढेर लक्ष्मी के कीड़ा-पर्वतों के समान सुशोभित हो रहे थे तथा बाजारों के मध्य स्थान-स्थान पर प्याऊ तथा फलदार वृक्ष लगे थे।
कुण्डनपुर के बाजारों की शोभा की तुलना कवि ने उत्तम काव्य से की है। काव्य-रसों के समान बाजार भी धन-सम्पत्ति से युक्त है। काव्य के पदविन्यास के समान ही बाजार भी संकीर्णता रहित स्पष्ट चौडी-2 सड़कों से युक्त हैं। भिन्न काव्यार्थ के समान ही बाजार भी नये-नये अनेकों पदार्थों से भरे हैं तथा काव्यार्थ के छल रहित होने के समान ही बाजार भी निष्कपट हैं। आचार्यश्री ने निष्कपट शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ इसका अर्थ बहुमूल्य वस्त्रादि होता है, छल माया रहित भी होता है।
वणिक्पथः काव्यतुलामपीति श्रीमानसंकीर्णपदप्रणीतिः । उपैत्यनेकार्थगणैः सुरीतिं समादधनिष्कपटप्रतीतिम् ।। 26 ।।
-वीरो.सर्ग.2।