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________________ वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन 223 विभेति मरणाद्दीनो न दीनोऽथामृतस्थितिः। सम्पदयन्विपदोऽपि सरितः परितश्चरेत् ।। 31 ।। -वीरो.सर्ग.101 यहाँ कवि का अभिप्राय है कि दीनपुरूष मृत्यु से डरते हैं और वीरपुरूष मृत्यु को ही अमृत के समान मानते हैं वे मृत्यु से नहीं डरते। मृत्यु, आत्मा को अमर बनाती है। शूरवीर विपत्तियों को भी सम्पत्ति-प्रद मानते हैं। जैसे चारों ओर से समुद्र को क्षोभित करने के लिये आयी हुई नदियाँ समुद्र को क्षोभित न करके उसी की सम्पत्ति बन जाती हैं। ___यहाँ वीर-पुरूष आलम्बन-विभाव हैं। उनकी अभयता एवं विपत्तियों को भी सम्पत्ति समझना अनुभाव है। हर्ष, मद, आदि व्यभिचारीभाव हैं। इन सबके सम्मिलन से पाठकों में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार के रूप में अवस्थित उत्साह वीररस के रूप में परिणत होकर आस्वादनोन्मुख होता है। 5. करूण रस ___संसार की शोचनीय दशा देखकर भगवान का हृदय करूणा से भर उठता है। अतः उक्त स्थल पर कवि ने करूण-रस को चित्रित किया है। यहाँ एक पद्य दर्शनीय है - जाया-सुतार्थ भुवि विस्फुरन्मनाः कुर्यादजायाः सुतसंहृतिं च ना। किमुच्यतामीदृशि एवमार्यता स्ववांछितार्थ स्विदनर्थकार्यता।। 5 ।। -वीरो.सर्ग.9। कवि द्वारा पुत्रप्राप्ति हेतु अजा के पुत्र की हिंसा एवं अन्यान्यवांछित प्रयोजनों की सिद्धि हेतु हिंसा का आश्रय उल्लिखित है। इसमें यज्ञीय पशु सभी सहृदयों को आलम्बन विभाव बनता है। पशुओं का छटपटाना, भागने के लिये उद्यत होना आदि उद्दीपन विभाव हैं। दर्शकों के शरीर में उत्पन्न होने वाला कम्पन, रोमांच, अश्रुपात, सात्विक अनुभाव हैं। निर्वेद, ग्लानि, दैन्य, चिन्ता आदि व्यभिचारी भावों के संयोग से शोकरूपी स्थायीभाव करूणरस का परिपाक करता है।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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