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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन अक्षरों को क्रमशः द्वितीय पंक्ति में रखा जाता है। अर्थात् श्लोक का एक अक्षर लेकर, एक अक्षर छोड़ा जाता है। लिये हुये अक्षर से प्रथम व तृतीय पंक्ति बन जाती है और छोड़े हुए अक्षरों से द्वितीय पंक्ति बन जाती है। इस बन्ध में लिखित श्लोक की विशेषता यह होती है कि दूसरे चौथे आदि सम अक्षर दोनों पंक्तियों में एक ही होते हैं। अतः इस श्लोक को पढ़ते समय एक अक्षर तृतीय पंक्ति का और एक अक्षर द्वितीय पंक्ति का लेना होता है। 2. तालवृन्तबन्ध
सन्तः सदा समा भान्ति मधुमति नुतिप्रिया। अयि त्वयि महावीर! स्फीतां कुरू मर्जू भयि।। 40।।
-वीरो.सर्ग 221 इस बन्ध में श्लोक को क्रमशः दण्ड में स्थित करते हुए दण्ड और तालवृन्त की सन्धि में ले जाते हैं। तत्पश्चात् तालवृन्त में घुमाया जाता है जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में है। 3. पद्मबन्ध
विनियेन मानहीनं विनष्टदैनः पुनस्तु नः। मुनये नमनस्थानं ज्ञानध्यानधनं मनः ।। 38 ।।
-वीरो.सर्ग. 22 | कमल में पंखुड़ियाँ और पराग ये दो वस्तुएँ विद्यमान होती हैं। अतः पद्मबन्ध की रचना में एक अक्षर बीच में पराग के रूप में और शेष अक्षर पंखुड़ियों के रूप में विद्यमान रहते हैं। उपर्युक्त श्लोक में 'न' अक्षर पराग रूप में स्थित है शेष अक्षर अनुलोम प्रतिलोम विधि से पढ़े जाते हैं अर्थात् पंखुड़ी से मध्य में और मध्य से पंखुड़ी में पढ़ा जाता है। यान बन्ध -
नमनोद्यमि देवेभ्योऽर्हद्भ्यः संब्रजतां सदा। दासतां जनमात्रस्य भवेदप्यद्य नो मनः ।। 38 ।।
-वीरो.सर्ग.22।