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196 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन स्फटालंकारविरहेऽपि न काव्यत्वहानिः' अर्थात् काव्य में सर्वत्र शब्दालंकार और अर्थालंकार सहित शब्द व अर्थ की योजना आवश्यक है, किन्तु कहीं-कहीं स्पष्ट रूप से अलंकार योजना न हो तो भी काव्यत्व में हानि नहीं होती है, परन्तु गुणों की उपस्थिति सर्वत्र होनी चाहिए।
अलंकार शब्द तथा अर्थ रूप अंग द्वारा अंगीरस का उपकार करते हैं। कहीं-कहीं ये अलंकार उक्ति-वैचित्र्य-मात्र करते हैं और कहीं-कहीं काव्य में रस होने पर भी उत्कर्षाधायक नहीं होते हैं। कहीं अलंकारों की बहुतायत से रसास्वादन में बाधा होने लगती है। कहीं ये रूचिकर न होकर बोझ से प्रतीत होते हैं। अतः ये काव्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण न होकर कवि के कौशल के परिचायक होते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त आचार्यश्री ज्ञानसागर जी ने काव्य-शास्त्रियों/अलंकारिकों द्वारा काव्य-रचना में जिन अलंकारों का होना स्वीकार किया है, वे सभी अलंकार वीरोदय महाकाव्य में गुम्फित किये हैं। उन्होंने अपनी कविता-कामिनी के सजाने के लिए निम्न अलंकारों का प्रयोग किया है। यथा-अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अपहुति, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास, स्वभावोक्ति, तद्गुण, अप्रस्तुतप्रशंसा, दीपक, विभावना, एकावली, पुनरूक्तवदाभास आदि। अनुप्रास, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा और अपहुति अलंकार इनको विशेष रूप से प्रिय हैं। यहाँ कुछ अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत हैं - 1. अनुप्रास
लक्षण (1) 'वर्णसाम्यमनुप्रासः' (2) 'अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् ।'
साहित्यदर्पणकार के अनुसार स्वर की विषमता होने पर भी व्यंजनमात्र की समानता को "अनुप्रास-अलंकार” कहते हैं।