________________
__194
वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
परिच्छेद - 2 अलंकार विवेचन
वाणी-भूषण बाल ब्रह्मचारी आचार्य ज्ञानसागर विरचित 'वीरोदय' महाकाव्य में अलंकारों का निर्देश करने से पूर्व अलंकार एवं उसके स्वरूप पर भी स्पष्ट प्रभाव डाला गया है। भूषणार्थक 'अलम्' पूर्वक 'कृ' धातु से करण या भाव में 'घ' प्रत्यय से निष्पन्न यह 'अलंकार'-शब्द सजावट, श्रृंगार, आभूषण, साहित्य-शास्त्र का एक अंग, काव्य का गुण-दोष विवेचक शास्त्रादि बहु-अर्थों में व्यवहृत है। वेद वेदाङग आदि में शतशः प्रयुक्त 'अलंकार' शब्द के आधार पर निःसन्देह कहा जा सकता है कि वेदाब्धि ही इसका स्रोत है जहाँ से प्रेरणा प्राप्त कर काव्य-शास्त्रीय आचार्यों ने इसका प्रतिपादन किया है। वेदों में अरंकृत, अरंकृति जैसे शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है।
आचार्य राजशेखर ने काव्य शास्त्र को सातवाँ वेदाङ्ग तथा पन्द्रहवाँ विद्या-स्थान बताया है। अलंकारः सप्तममङ्गमिति यातावरीयः। सकल-विद्या-स्थानैकायतन् पंचदशं काव्यं विद्यास्थानम् ।।
प्राचीनकाल में यह 'अलंकार'- शब्द सम्पूर्ण साहित्य-शास्त्र या काव्य-शास्त्र के लिए प्रयुक्त होता था। आचार्य वामन ने 'अलंकृतिरलंकारः' अथवा 'अलंक्रियतेऽनेन' व्युत्पत्ति से निष्पन्न अलंकार को शब्द-सौन्दर्य या शोभादायक कहा है। यह सौन्दर्य दोषों के त्याग एवं गुणालंकारादि के ग्रहण आदि से सम्पादित होता है। ‘सालंकार काव्य ही ग्राह्य है' ऐसा स्वीकार किया है।
'आचार्य दण्डी' ने काव्य शोभाकार सभी धर्मों में अलंकार को ही प्रधान्येन स्वीकार किया है। 'काव्यशोभाकारान् धर्मानलंकारान्