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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
185 कलात्मक अभिव्यंजना से भाषा में भावों के स्वरूप का निर्देश करने के बजाय अनुभूति कराने की शक्ति आ जाती है तथा कथन में रमणीयता का आविर्भाव होता है। किसी स्त्री के मुख को 'सुन्दर' कहने से उसके सुन्दर होने की सूचना मात्र मिलती है, किन्तु उसे चन्द्रमा या कमल कहने से सौन्दर्य की अनुभूति होती है; क्योंकि चन्द्रमा और कमल के सौन्दर्य का हमें अनुभव होता है। अतः ये शब्द हमारे अनुभव को जगाकर मुख के सौन्दर्य को मानस-पटल पर दृश्य बना देते हैं। किसी के अत्यन्त क्रुद्ध होने पर हम यही कहें कि "वह अत्यन्त कुद्ध हो गया" तो इससे उसके क्रोधातिरेक की जानकारी ही मिलेगी, क्रोधाभिभूत अवस्था की अनुभूति न होगी। इसके बजाय हम यह कहें कि 'वह आग बबूला हो गया' या 'उसकी आंखों के अंगारे जलने लगे तो उसकी क्रोधाभिभूत दशा आँखों के सामने साकार हो जायेगी। “कोई युवक किसी युवती से बेहद प्रेम करता है"- ऐसा कहने से उसके प्रेम की उत्कृष्टता का साक्षात्कार नहीं होता, किन्तु 'वह उस पर मरता है ऐसा कहने से उसके प्रेम की उत्कृष्टता अनुभव में आ जाती है। किसी को "खतरनाक" कहने से केवल उसके खतरनाक होने की सूचना मिलती है, लेकिन "साँप" कहने से उसके खतरनाकपन की छाया मन पर छा जाती है।
___ इस प्रकार जब वस्तु-स्वभाव, मानव-अनुभूतियों एवं व्यापारों को वाचक शब्द द्वारा निर्दिष्ट न कर उपमा उपचारादि (लाक्षणिक प्रयोग) जन्य बिम्बों, मनोभावों के सूचक बाह्य-व्यापार रूप अनुभावों, सन्दर्भ-विशेष के वाहक शब्दों तथा सन्दर्भ-विशेष में गुम्फित शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, तब भाषा, भावों के स्वरूप की अनुभूति कराने योग्य बनती है।
इन तत्त्वों के द्वारा वस्तु के सौन्दर्य का उत्कर्ष, मानव-मनोभावों एवं अनुभूतियों की उत्कृष्टता, तीक्ष्णता, उग्रता, कटुता, उदारता, वीभत्सता, मनोदशाओं की गहनता, किंकर्तव्यविमूढ़ता, परिस्थितियों और घटनाओं की हृदय-प्रभावकता, मर्मच्छेदकता और आह्लादिकता आदि अनुभूति-गम्य हो जाते हैं। इनकी अनुभूति सहृदय के स्थायीभावों को उबुद्ध करती है। अतः वह भावमग्न/रस-मग्न हो जाता है।