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________________ 170 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शना - वरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।। 1/10।। बन्ध-हेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्षः ।। 2/1011 तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् ।। 5/10|| मोक्ष के लिए निःश्रेयस् शब्द का भी प्रयोग हुआ है। निःश्रेयस् का अर्थ अत्यन्त कल्याण रूप है। 'नितरां श्रेयो निश्रेयसम्' । आचार्य समन्तभद्र ने निःश्रेयस् शब्द का प्रयोग करते हुए उसे ही अत्यन्त कल्याण-पद प्रतिपादित किया है। उन्होंने- "जन्म, वार्धक्य, रोग, मरण, शोक, दुख और भय से परिमुक्त शुद्ध, सुख-सहित निर्वाण को निःश्रेयस माना है। जन्म-जराभयमरणैः शोकैर्दुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम्। निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।। -रत्नकर श्रा. 1311 आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है "कि यह जीव मोह के उपशम या क्षय होने पर जिनशासित मार्ग को प्राप्त करके ज्ञानमार्ग का अनुचारी होकर निर्वाण को प्राप्त करता है।" उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि धीरो।। __-पंचा. गा. 701 सोमदेव ने लिखा है कि रागद्वेषादि रूप आभ्यन्तर मल के क्षय होने से जीव को स्व-स्वरूप की प्राप्ति होना मोक्ष है। मोक्ष में न तो आत्मा का अभाव होता है और न ही आत्मा अचेतन होता है और चेतन होने पर भी आत्मा में ज्ञानादि का अभाव भी नहीं होता है। आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात् । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ।। -उपासका. 1131 उपर्युक्त विवेचन की समीक्षा करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैनदृष्टि से मोक्ष जीव की पूर्णरूपेण विशुद्ध अवस्था का नाम है।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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