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________________ 162 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन को नित्यानित्य कहा जाता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक सत् ही द्रव्य है। महावीर ने तत्त्व को त्रयात्मक बतलाया है। इस त्रयात्मकता की सिद्धि निम्न उदाहरण द्वारा होती है। राजा के पास एक स्वर्ण कलश है। राजपुत्री उस कलश को चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस कलश को तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्र की हठ पूरी करने के लिये कलश को तुड़वाकर मुकुट बनवा देता है। कलश-नाश से कन्या दुःखी होती है। मुकुट के उत्पाद से पुत्र प्रसन्न होता है। पर राजा तो स्वर्ण का इच्छुक है, जो कलश टूट कर मुकुट बन जाने पर भी मध्यस्थ रहता है, उसे न शोक होता है और न हर्ष। अतः वस्तु त्रयात्मक है। अनेक-शक्त्यात्मकवस्तु तत्त्वं तदेकया संवदतोऽन्यसत्त्वम्। समर्थयत्स्यात्पदमत्र भाति स्याद्वादनामैवमिहोक्तिजातिः।।8।। -वीरो.सर्ग.19। प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण-धर्म या शक्तियाँ हैं। उन सबका कथन एक साथ एक शब्द से सम्भव नहीं है। इसलिए किसी एक गुण या धर्म का कथन करते समय यद्यपि वह मुख्य रूप से विवक्षित होता है, तथापि शेष गुणों या धर्मों की विवक्षा न होने से उनका अभाव नहीं हो जाता, उस समय उनकी गौणता रहती है। जैसे गुलाब के फूल में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनेक गुण विद्यमान हैं, तो भी जब कोई मनुष्य कहता है कि देखो यह फूल कितना कोमल है, तब उसकी विविक्षा स्पर्श गुण की है, फूल की कोमलता को कहते हुए उनके गन्ध आदि गुणों की विविक्षा नहीं है। जैसे घट भी पदार्थ है और पट भी पदार्थ है, किन्तु शीत से पीड़ित पुरूष को घट से कोई प्रयोजन नहीं होता। इसी प्रकार प्यास से पीड़ित पुरूष घट को चाहता है, पट को नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि पदार्थपना घट और पट में समान होते हुए भी प्रत्येक पुरूष अपने अभीष्ट को ही ग्रहण करता है, अनभीप्सित पदार्थ को नहीं। – यही स्याद्वादसिद्धान्त है।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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