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________________ 143 वीरोदय का स्वरूप मनोऽधिकुर्यान्न तु बाह्यवर्गमन्यस्य दोषे स्विदवाग्विसर्गः। मुञ्चेदहन्तां परतां समञ्चेत्कृतज्ञतायां महती-प्रपन्चे ।। 38 ।। -वीरो.सर्ग. 18। गृहस्थ किसी भी बात को अच्छी तरह जाँच कर ही उचित अनुचित का निर्णय ले। इस प्रकार की जीवन चर्या से गृहस्थ का इहलोक व परलोक दोनों सुधर जाते हैं। श्रुतं विगाल्याम्बु इवाधिकुर्यादेताद्दशी गेहभृतोऽस्तु चर्या। तदा पुनः स्वर्गल एव गेहः क्रमोऽपि भूयादिति नान्यथेह।। 39 ।। एवं समुल्लासितलोकयात्रः संन्यस्ततामन्त इयादथात्र। समुज्झिताशेषपरिच्छदोऽपि अमुत्र सिद्धयै दुरितैकलोपी।। 40।। निगोपयेन्मानसमात्मनीनं श्रीध्यानवप्रे सुतरामदीनम् । इत्येष भूयादमैरो विपश्चिन्न स्यात्पुनारयिताऽस्य कश्चित् ।। 41।। -वीरो.सर्ग.18। गृहस्थ इस प्रकार धर्मानुसार जीवन व्यतीत करते हुए अन्त समय में परलोक की सिद्धि के लिए सर्व परिजन व परिग्रहादि को छोड़कर तथा पांचों पापों का सर्वथा त्याग कर सन्यास दशा को स्वीकार करें अर्थात् साधु बनकर समाधि पूर्वक अपने प्राणों का विसर्जन करें। ___सन्यास दशा में साधक अपने मन को दृढ़तापूर्वक श्री वीतराग प्रभु के ध्यान रूप कोट में सुरक्षित रखे और सर्व संकल्प-विकल्पों का त्याग करे। ऐसा करने वाला साधक विद्वान् नियम से अजर-अमर बन जायेगा। जो मनुष्य सन्मार्ग-गामी बनेगा वह उन्नति के उच्च पद को अवश्य प्राप्त होगा। 6. शिक्षाव्रत देशावकाशिकं वा सामायिकं प्रोषधोपवासो वा। वैय्यावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि।। 91।। -रत्न. श्रा.।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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