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वीरोदय का स्वरूप
127 महावीर के व्यक्तित्व में स्वावलम्बन और स्वतन्त्रता की भावना पूर्णतः समाहित थी। अहिंसक
अहिंसक व्यक्तित्व का प्रथम दृष्टि-बिन्दु सहअस्तित्व और सहिष्णुता है। सहिष्णुता के बिना यह अस्तित्व सम्भव नहीं है। जीवन का वास्तविक विकास अहिंसा के आलोक में ही होता है। वैर-वैमनस्य, द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार आदि जितनी भी व्यक्ति और समाज की ध्वंसात्मक विकृतियाँ हैं, वे सब हिंसा के ही रूप हैं। मनुष्य का अन्तस् हिंसा के विविध प्रहारों से निरन्तर घायल होता रहता है। इन प्रहारों के शमन हेतु उन्होंने अहिंसक दृष्टि और अहिंसक वृत्ति जीवन में अपना कर शत-प्रतिशत यथार्थता प्रदान की। वीरोदय में अहिंसक आचरण के सन्दर्भ में लिखा है कि - संरक्षितुं प्राणभृतां महीं सा व्रजत्यतोऽम्बा जगतामहिंसा। हिंसा मिथो भक्षितुमाह तस्मात्सर्वस्य शत्रुत्वमुपैत्यकस्मात् ।। 11।।
- वीरो.सर्ग.161 अहिंसा सभी प्राणियों की संसार में रक्षा करती है। इसलिये वह माता कहलाती है। हिंसा राक्षसी प्रवृत्ति है। अतः अहिंसा ही उपादेय है।
महावीर का सिद्धान्त था कि अग्नि का शमन अग्नि से नहीं होता। इसके लिये जल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं, अहिंसा से होना चाहिये। महावीर ने जगत को बाह्य हिंसा से रोकने के पूर्व अपने भीतर विद्यमान राग-द्वेष रूप भाव-हिंसा का त्याग किया फलतः उनके व्यक्तित्व का प्रत्येक अणु अहिंसा की ज्योति से जगमगा उठा सचमुच अहिंसा के साधक महावीर का व्यक्तित्व धन्य था
और धन्य थी उनकी संचरण शक्ति । उनका अहिंसक व्यक्तित्व निर्मल आकाश के समान विशाल और समुद्र के समान अतल-स्पर्शी था। दया, प्रेम और विनम्रता ने उनकी अहिंसक साधना को सुसंस्कृत किया था।