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________________ 123 वीरोदय का स्वरूप इस विपुल वैभव को प्राप्त कर भी प्रियमित्र अनासक्त रहता था। उसे अर्थ और काम पुरूषार्थ सदोष प्रतीत होते थे। धर्म पुरूषार्थ की ओर ही उसका विशेष झुकाव था। वह निरन्तर श्रावकधर्म का सेवन करता हुआ मन्दिरों और मूर्तियों के निर्माण में संलग्न रहता था। प्रतिदिन देवपूजन करता हुआ, मुनियों को प्रासुक आहार देता था। अहर्निश अशुभ वृत्तियों का त्याग कर शुभ वृत्तियों को प्राप्त करने की चेष्टा करता था। सुन्दर रमणियाँ, उच्च अट्टालिकाएँ, छियान्वै करोड़ ग्राम, उद्योग शालाएँ एवं गज-अश्वादि वैभव उसे निस्सार प्रतीत होते थे। ___ एक दिन वह प्रियमित्र चक्रवर्ती पुरजन-परिजन के साथ क्षेमकर तीर्थकर की वन्दना के लिये गया। समवशरण में पहुँच कर तीन प्रदक्षिणायें देकर तीर्थंकर भगवान की पूजा की। उनसे चर्तुगति के दुःखों का वर्णन सुनकर उसका विवेक जाग उठा। उसने विरक्त होकर निर्ग्रन्थ-दीक्षा धारण कर ली। आयु के अन्त में प्राण त्याग कर सहस्रार नामक द्वादशम स्वर्ग में सूर्यप्रभ नाम का महान देव हुआ। नन्दभव प्रियमित्र के जन्म में राजचक्रवर्तित्व को ठुकरा कर उन्हें धर्म चक्रवर्ती बनना अभीष्ट था। अतः महावीर का जीव सदा आत्म-शोधन में प्रवृत्त रहा। उसने स्वर्ग से च्युत हो छत्रपुर नगर के राजा नन्दिवर्द्धन और उनकी पुण्यवती रानी वीरमती के यहाँ नन्द नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया। किशोर होने पर शस्त्र और शास्त्र-विद्या के अर्जन हेतु उसे गुरू के आश्रम में भेजा गया। विद्या और कलाओं में पारंगत और युवा होने पर उसका राज्याभिषेक किया गया। पूर्व-जन्मों में की गई साधना के फलस्वरूप वह अपने सम्यक्त्व को उत्तरोत्तर निर्मल बनाने हेतु प्रयत्नशील रहने लगा। "सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से ही आत्मा यह निश्चय करती है कि पुद्गल का एक कण भी मेरा अपना नहीं है। मैं त्रिकालावच्छिन्न शुद्ध बुद्ध रूप हूँ। शरीरादि पुद्गल-द्रव्यों की सत्ता सदा रहेगी, पर इनके प्रति जो आसक्ति/ममता है, उसे दूर करना ही पुरूषार्थ है। संसार अत्यन्त दुःखों की खान है। काम,
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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