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________________ 106 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन खिलावें। इसके विपरीत भ. महावीर ने वर्णाश्रम और जातिवाद के विरूद्ध भी अपनी देशना दी और कहा मांस को खाने वाला ब्राह्मण निन्द्य है और सदाचारी शूद्र वन्द्य है। यथाविप्रोऽपि चेन्मांसभुगस्ति निद्यः, सद्-वृत्तभावाद् वृषलोऽपि वन्द्यः । उस समय ब्राह्मणों ने यहाँ तक कानून बना दिये थे कि 'शूद्र' को ज्ञान यज्ञ का उच्छिष्ट और हवन से बचा भाग धर्म का उपदेश नहीं देना चाहिए। यदि कोई शूद्र को धर्मोपदेश और व्रत का आदेश देता है, तो वह शूद्र के साथ असंवृत नामक अन्धकारमय नरक में जाता है। न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्। न चास्योपदिशेद्धर्म यश्चास्य व्रतमादिशेत्।। यश्चास्योपदिशेद्धर्म यश्चास्य व्रतमानदिशेत् । सोऽसंवृत-तमो घोरं सह तेन प्रपद्यते।। - वशिष्ठ स्मृति 18/12/-13 | शूद्रों के लिये वेदादि धर्म-ग्रन्थों के पढ़ने का अधिकार तो था ही नहीं, प्रत्युत यहाँ तक ब्राह्मणों ने विधान कर रखा था कि जिस गाँव में शूद्र रहता हो, वहाँ वेद का पाठ भी न किया जावे। यदि वेद-ध्वनि शूद्र के कानों में पड़ जाय तो उसके कानों में गर्म शीशा और लाख भर दी जाय । वेद-वाक्य का उच्चारण करने पर उसकी जिह्वा छेद दी जावे और वेद-मंत्र याद कर लेने पर उसके शरीर के दो टुकड़े किये जावें। यथा अथ हास्य वेदमुपश्रृण्वतस्वपु-जतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरण-मुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीर-भेदः । उस समय शूद्रों को नीच, अधम एवं अस्पृश्य समझकर उनकी छाया तक से परहेज किया जाता था। आचार के स्थान पर जातीय श्रेष्ठता का ही बोल-बाला था। पग-पग पर रूढ़ियाँ, कुप्रथाएँ और कुरीतियों का बाहुल्य था। स्वार्थ-लोलुपता, कामुकता और विलासिता ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होती थी। यज्ञों में होने वाली पशु-हिंसा ने मनुष्यों के हृदय निर्दयी और कठोर बना दिये थे।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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