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100 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन लोगों ने ही नहीं ग्रहण किया, वरन् जन-सामान्य भी इस दिशा में पीछे नहीं रहा। जिस देश के राजपुरूष जैनधर्म को स्वीकार करते थे, वहाँ की जनता भी अपने शासकों का अनुशरण करती थी।
. तत्कालीन जैनमतावलम्बियों ने जैनधर्म को तो स्वीकार किया ही, साथ ही उन्होंने जिनालयों एवं जिनाश्रमों का निर्माण करने-करवाने में भी योगदान दिया तथा जैन-साधुओं को भी यथाशक्ति सम्मान दिया। जैनेतरों ने भी जैनधर्म के मूल सिद्धान्त 'अहिंसा परमो धर्मः' को ग्रहण किया। इस प्रकार भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित जैनधर्म दिग-दिन्गतों में विस्तृत हुआ। विश्वकत्याण की भावना
विश्वकल्याण की भावना से भ. महावीर ने समाजोपयोगी विचारों को अंकित किया है। उन्होंने "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्" के सिद्धान्त को मूर्त रूप दिया और पूर्ण अहिंसा, सदाचार, सद्विचार, परोपकार, इन्द्रिय-संयम आदि गुणों को सर्वत्र व्यापकता दी। साम्यभाव का प्रतिपादन
... भगवान महावीर ने कहा था कि इस धरा पर सबको समान अधिकार प्राप्त हैं। कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं है। संसार परिवर्तनशील है। हमें मानव-मात्र का सम्मान करके आत्मोत्थान के मार्ग की ओर अग्रसर होना चाहिए। दूसरों के दोषों को प्रकट न करें, मौन धारण करें और उनके गुणों को ईर्ष्या रहित होकर अपनायें। विपत्ति में धैर्य रखें अपने ज्ञान और धन के प्रति घमण्ड नहीं करें। काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर ही रहें। समाज में वर्ण-व्यवस्था पुरूष के कर्मानुसार हो, जन्मानुसार नहीं। मनुष्य का आचरण ही समाज में पुरूष की स्थिति का निर्धारक हो। पुरूष को आत्म-विश्वासी, सत्यनिष्ठ, दृढ़, निर्भीक एवं पाप रहित मन वाला होना चाहिए। संसार के द्वन्दों पर विजय पाने वाला पुरूष जितेन्द्रिय होकर "जिन" कहलाता है। उसकी अपनी स्थिति के अनुसार शुभाचरण ही 'जैनधर्म' के नाम से प्रसिद्ध है।