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________________ 98 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन भूत्वा परिव्राट् स गतो महेन्द्र- स्वर्गं ततो राजगृहेऽपकेन्द्रः । जैन्या भवामि स्म च विश्वभूतेस्तुक् विश्वनन्दी जगतीत्यूपते ।। 11 ।। वीरो.सर्ग.11 । तत्पश्चात् राजगृह नगर में विश्वभूति और उसकी जैनी नामक स्त्री का विश्वनन्दी नामक पुत्र हुआ। तपस्या करके वह महाशुक्र स्वर्ग में गया। तत्पश्चात् वह विश्वनन्दी का जीव पोदनपुर के राजा प्रजापति और रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। इसके बाद विश्वनन्दी को रौरव नरक में जाना पड़ा। बाद में उसे सिंह की योनि प्राप्त हुई । यह सिंह मर कर नरक गया। फिर सिंह रूप में जन्मा । उस हिंसक सिंह को किसी मुनिराज ने उसके पूर्वजन्मों का वृत्तान्त बतला दिया। सिंह - योनि के पश्चात् वह अमृतभोजी देव हुआ । इस देव ने कनकपुर में राजा कनक के रूप में जन्म लिया। वह मुनिव्रतों का पालन कर लान्तव स्वर्ग में पहुँचा । फिर इस देव ने साकेत नगरी में राजा वज्रषेण और शीलवती रानी के पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण किया । C अन्त में तपस्या करके महाशुक्र स्वर्ग को गया । पुनः पुष्कल देश की पुण्डरीकिणीपुरी के राजा सुमित्र और रानी सुव्रता का प्रियमित्र नामक राजकुमार हुआ। तपस्या के फलस्वरूप वह सहस्रार स्वर्ग में जन्मा । पुनः पुष्कल देश की छत्रपुरी नगरी के राजा अभिनन्दन और रानी वीरमती का नन्द नामक पुत्र हुआ । इसी जन्म में दैगम्बरी दीक्षा लेकर अच्यु स्वर्ग का इन्द्र बना। उसी इन्द्र ने अब इस कुण्डनपुरी में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान के रूप में जन्म लिया है। इन्होंने पूर्व जन्मों के वृत्तान्त को अपने किये पाप का फल बताया। कुटुम्ब से असहयोग एवं . क्रोध, मत्सर आदि के त्याग पर बल दिया और सत्य का पालन करने के लिये कहा । केवलज्ञान की प्राप्ति आत्म-तत्त्व का चिन्तन करते हुए महावीर ग्रीष्म में पर्वत-शिखरों पर, वर्षा में वृक्षों के नीचे और शीतकाल में चौराहों पर बैठे और विचार किया कि पीड़ा आत्मा को नहीं, ज्ञान - रहित शरीर को कष्ट देती है । दुर्द्धर
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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