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आचार्य श्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
धनश्री ने यथासमय पुत्र को जन्म दिया। प्रसूति के कष्ट से वह मूर्छित हो गई। श्रीदत्त ने वृद्ध स्त्रियों से घोषणा करा दी कि "मरा हुआ बालक उत्पन्न हुआ है" और सद्योजात शिशु को वध हेतु एक चाण्डाल के हाँथों • सौंप दिया। चाण्डाल ने उस बालक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसे मारने के बदले एकान्त स्थान में छोड़ दिया और घर चला गया। श्रीदत्त का बहिनोई सेठ इन्द्रदत्त घूमता हुआ उसी स्थान पर पहुँचा। ग्वालों से उस बालक का समाचार जानकर निःसन्तान होने के कारण बालक को . सहर्ष उठा लिया और घर पर अपनी स्त्री राधा से उसका पालन करने को कह दिया ।
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श्रीदत्त ने जब यह समाचार सुना तो वह इन्द्रदत्त के घर आया और कपटपूर्वक बहिन के साथ उस बालक को अपने घर ले गया। बालक को मारने की इच्छा से उसने उसे एक चाण्डाल को दे दिया। बालक की रूप- सम्पदा से द्रवित होकर चाण्डाल ने उसे घने वृक्षों के बीच एकान्त - स्थान में नदी के किनारे रख दिया और घर चला गया । सन्ध्याकाल में ग्वालों ने उस बालक को उठाकर ग्वालों के मुखिया गोविन्द को दे दिया । पुत्र की इच्छा से गोविन्द ने भी उसे अपनी स्त्री सुनन्दा को सौंप दिया । उन्होंने उस बालक का नाम धनकीर्ति रखा और बड़े स्नेह से उसका पालन करने लगे। धीरे-धीरे बढ़ते हुए धनकीर्ति को एक दिन दुष्ट श्रीदत्त ने फिर देख लिया। उस दुष्ट ने अपने एक पत्र में अपने पुत्र महाबल को सम्बोधित करते लिखा कि इस कुल के नाशक व्यक्ति को अवश्य ही मार देना । उस पत्र को लेकर धनकीर्ति पिता और सेठ की अनुमति से शीघ्रता से गन्तव्य की ओर चल दिया ।
उज्जयिनी में वह एक महान आम्रवन में राह की थकान दूर करने के लिये एक वृक्ष के नीचे सो गया। थोड़ी देर में वहां अनङ्गसेना वेश्या आई और उसने उस युवक को सोते देखा । पूर्वजन्म के उपकार के कारण उत्पन्न स्नेह के वश उसने पास रखे पत्र को पढ़कर उसके अक्षरों पर विचार किया तथा अपने नेत्र के काजल को सलाई में लगाकर उस पत्र