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80 . वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन 3 में लिखा है- “हे अग्निदेव! इस वेदी पर सब मनुष्यों से पहले अर्हन्त की ही पूजा करो, उनके दर्शन करो, फिर उनका आह्वानन करो, पवनदेव
और अच्युतेन्द्र देवादि की भाँति उनकी पूजा करो।" इसीप्रकार बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि का वर्णन अथर्ववेद में भी है -
त्यमूषु वाजिनं देवजूतं सहावानं तरूतारं स्थानां। अरिष्टनेमि पृतनजिमाशु स्वस्तये ता_मिहाहुवेम् ।।'
" स्वर्गीय घोड़ों सरीखे घोड़े जिसमें जुते हुए हैं उस रथ को चलाने वाले अरिष्टनेमि भगवान् हमारा कल्याण करें। हम लोग उनका इस यज्ञ में आह्वानन करते हैं। श्रीमदभागवत के छठे अध्याय में उन्नीसवें श्लोक में लिखा है कि जो बार-बार अनुभव में आने योग्य इन सांसारिक विषय-भोगों में अभिलाषा रहित हो चुका था और चिरकाल से सोई हुई बुद्धि वाले अर्थात् भूले हुये दुनियाँ के जन-समूह पर अवर्णनीय दयावृत्ति द्वारा जिसने लोगों को कल्याण-मार्ग में लगाया था, उन ऋषभदेव के लिये नमस्कार है।
श्रीमद्भागवत में यह भी लिखा है कि ऋषभदेव ने ही तपस्या करके परमहंस मार्ग को प्रगट किया है- "ऋषभदेव महाराज नाभिराजा के उत्तम पुत्र हुए हैं, जिन्होंने कि साम्यवाद को अपना कर अर्थात शत्रु, मित्र, तृण, कञ्चन , जंगल और नगर में समबुद्धि को रखते हुए उत्तमोत्तम योगाभ्यास किया था। जिस योगाभ्यास को ऋषि लोग परमहंस अवस्था कहते हैं, उस अवस्था को धारण कर वे श्री ऋषभदेव स्वस्थ, इन्द्रिय-विजयी और परिग्रह-रहित हो गये थे।
उसी समय विष्णु भगवान महर्षि लोगों के द्वारा प्रसन्न हो जाने से नाभिराजा की इच्छा को पूरी करने अन्तःपुर में महारानी मरूदेवी की कूख में दिगम्बर महर्षियों के धर्म को प्रगट करने की इच्छा से ऊँची श्वेत वर्ण वाली शरीरलता को लेकर अवतरित हुए। महात्मा ऋषभदेव जी की तपस्या के बल से उनकी विष्टा में भी ऐसी गन्ध हो गई थी जो दस योजन तक चारों ओर की वायु को सुगन्धित कर देती थी।