SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन का नय सिद्धांत अन्तिम साध्य की ओर होती है। वह कर्म के तात्कालिक पक्ष पर ध्यान न देकर कर्म के प्रयोजन की ओर ध्यान देती है। प्राचीन आचार्यों ने नैगमनय का उदाहरण देते हुए बताया है कि जब कोई व्यक्ति स्तम्भ के लिए किसी जंगल से लकडी लेने जाता है और उससे जब पुछा जाता है कि भाई तुम किसलिए जंगल जा रहे हो तो वह कहता है मैं स्तम्भ लेने जा रहा हूँ। वस्तुतः वह जंगल से स्तम्भ नहीं अपितु स्तम्भ बनाने की लकडी ही लाता है। लेकिन उसका संकल्प या प्रयोजन स्तम्भ बनाना ही है। अतः वह अपने प्रयोजन को सामने रखकर ही वैसा ही कथन करता है। हमारी व्यावहारिक भाषा में ऐसे अनेक कथन होते हैं जब हम अपने भावी संकल्प के आधार पर ही वर्तमान व्यवहार का प्रतिपादन करते हैं। डाक्टरी में पढ़ने वाले विद्यार्थी को उसके भावी लक्ष्य की दृष्टि से डॉक्टर कहा जाता है। नैगमनय के कथनों का वाच्यार्थ भूत पर आधारित भविष्यकालीन साध्य या संकल्पों के आधार पर होता है। जैसे- प्रत्येक भाद्रकृष्णा अष्टमी को कृष्णजन्माष्टमी कहना। यहाँ वर्तमान में भूतकालीन घटना का उपचार किया गया है। ___संग्रहनय : भाषा के क्षेत्र में अनेक बार हमारे कथन व्यष्टि को गौण कर समष्टि के आधार पर होते हैं। जैनाचार्यों के अनुसार जब विशेष या भेदों की उपेक्षा करके मात्र सामान्य लक्षणों या अभेद के आधार पर कोई कथन किया जाता है तो वह संग्रहनय का कथन माना जाता है। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति यह कहे कि "भारतीय गरीब हैं। ' तो उसका यह कथन व्यक्ति विशेष पर लागू न होकर सामान्यरूप से समग्र भारतीय जनसमाज का वाचक होता है। प्रज्ञापनासूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि जाति प्रज्ञापनीय भाषा सत्य मानी जाये अथवा असत्य मानी जाये या व्यक्ति विशेष के आधार पर सत्य या असत्य मानी जाये। जाति प्रज्ञापनीय भाषा में समग्र जाति के सम्बन्ध में गुण, स्वभाव आदि का प्रतिपादन होता है, किन्तु ऐसे कथनों में अपवाद की सम्भावना से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। सामान्य या जाति के सम्बन्ध में किये गये कथन कभी व्यक्ति के सम्बन्ध में सत्य भी होते हैं और कभी असत्य भी होते हैं। अतः यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि उस कथन के अपवाद उपस्थित हैं तो उसे सत्य किस आधार पर कहा जाय। उदाहरण के लिए यदि कोई कहे कि स्त्रियाँ भीरू (डरपोक) होती हैं तो यह कथन सामान्यतया स्त्री जाति के सम्बन्ध में तो सत्य माना जा सकता है किन्तु किसी स्त्री विशेष के सम्बन्ध में यह सत्य ही हो, ऐसा आवश्यक नहीं हैं। अतः संग्रह नय के आधार पर किये गए कथन जैसे 'भारतीय
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy