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पुस्तक-समीक्षा
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की जगह आत्म नियंत्रण बल दिया जाएगा। किन्तु सवाल वही पुराना है कि यह सब करेगा कौन? कैसे होगा यह सब ? केवल पुरूषार्थ की महत्ता दर्शाने से तो यह काम होने वाला नहीं। हमें यह भी सोचना चाहिए कि विकास के आधुनिक पूंजीवादी मॉडल में ऐसा क्या आकर्षण है कि हम अनायास ही, एक महती आध्यात्मिक परम्परा के वाहक होते हुए भी, उसे अपनाते चले जा रहे हैं? यह सही है कि विकास
आधुनिक मॉडल में आर्थिक विकास और नैतिक विकास में अन्तर्विरोध है किन्तु क्या केवल नैतिकता के उपायों से उसे दूर किया जा सकता है ?
उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त भी संकलन में तीन लेख हैं- 'भारतीय कला का मूल तत्त्व', 'अनुशासन का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य' और 'लोकायत दर्शन : एक तथ्यात्मक विमर्श' । लोकायत दर्शन की प्राचीनता के बारे में किसी को संदेह नहीं है लेकिन उसका कोई ग्रन्थ अब तक उपलब्ध न होने से उसके बारे में हम उसके विरोधियों के कथनों से ही जानते रहे हैं। कुछ समय पहले ही गुजरात से जयराशि भट्ट द्वारा ८९वीं शताब्दी में रचित एक ग्रन्थ 'तत्त्वोपप्लव सिंह' उपलब्ध हुआ है जिसकी चर्चा भी लेख में अपेक्षित थी। अतिप्राचीन भौतिकवादी परम्परा के ग्रन्थों की अनुपलब्धता महान आध्यात्मिक परम्परा के अनुयायियों की नैतिकता के सामने प्रश्न चिन्ह भी लगाता है जिसकी चर्चा भी लेख में जरुरी थी ।
यह मान लेने के बाद कि भारतीय परम्परा का मूल तत्त्व अध्यात्म है, यह मानने में कोई विसंगति नहीं दिखती कि यहाँ की सारी कलायें, अपने बोध से लेकर उद्देश्य तक, आध्यात्मिक हैं। इस स्थापना की सत्यता का परीक्षण इस समीक्षक की क्षमता से परे है। अत: यह किसी अन्य कला - विशेषण की अपेक्षा रखता है । किन्तु लोककलाओं के बारे में भी ऐसा कहना शायद मुश्किल होगा।
यह मानते हुये कि शिक्षा का उद्देश्य आत्म विवेक जगाना है न कि अनुशासन, लेखक ने बाह्य अनुशासन को थोपने के स्थान पर आन्तरिक अनुशासन पर ठीक ही बल दिया है। किन्तु छात्रों से आत्म बोध, अद्वैत पर आधारित आत्मानुशासन की अपेक्षा करना कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करना लगता है।
लेखों के ऐसे किसी भी संकलन में बिखराव और दोहराव का खतरा बराबर रहता है। अद्वैतवादी दृष्टि से सभी लेखों को एक डोर में पिरोने में लेखक ने इस संकलन में सफलता पायी है जो एक उपलब्धि ही कही जायेगी। अलग-अलग समय पर लिखे गये लेखों में दोहराव से बचना शायद सम्भव नहीं है, इसलिए यह कमी तो है। एक