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________________ सागरमल जैनं जितने प्रारूप हो सकते है उतने ही नय हो सकते हैं, फिर भी मोटे रूप से जैन दर्शन में दो, पाँच और सप्त नयों की अवधारणा मिलती है। यद्यपि इन सात नयों के अतिरिक्त निश्चय नय और व्यवहार नय तथा द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय का भी उल्लेख जैन ग्रन्थों में है, किन्तु ये नय मूलत: तत्त्वमीमांसा या अध्यात्मशास्त्र से सम्बन्धित है। जबकि नैगम आदि सप्त नय मूलतः भाषा-दर्शन से सम्बन्धित हैं। __नय और निक्षेप दोनों ही सिद्धान्त यद्यपि शब्द एवं कथन के वाच्यार्थ (meaning) का निर्णय करने से सम्बन्धित है, फिर भी दोनों में अन्तर है। निक्षेप मूलतः शब्द के अर्थ का निश्चय करता है, जबकि नय वाक्य या कथन के अर्थ का निश्चय करता है। जैन दर्शन में नयों का विवेचन तीन रूपों में मिलता है : (१) निश्चयनय और व्यवहारनय (२) द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय तथा (३) नैगमादि सप्तनय। भगवतीसूत्र आदि आगमों में नयों के प्रथम एवं द्वितीय वर्गीकरण ही वर्णित हैं, जबकि समवायांग? अनुयोगद्वार, नन्दीसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र में नयों का तृतीय वर्गीकरण नैगमादि के रूप में पाया जाता है, इसका भाष्य मान्य पाठ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्द ऐसे पाँच नयों का उल्लेख करता है, जबकि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ नैगम आदि सात नयों का उल्लेख करता है। निश्चय और व्यवहार नय मूलतः ज्ञान पुरक दृष्टिकोण से सम्बन्धित हैं। वे वस्तु स्वरूप के विवेचन की शैलियाँ हैं, जबकि द्रव्यार्थिक और पर्यायर्थिक नय वस्तु के शाश्वत पक्ष और परिवर्तनशील पक्ष का विचार करते हैं। सप्त नयों की चर्चा में जहाँ तक नैगमादि प्रथम चार नयों का प्रश्न है वे मूलतः वस्तु के सामान्य और विशेष स्वरूप की चर्चा करते हैं। जबकि शब्दादि तीन नय वस्तु का कथन किस प्रकार से किया गया है, यह बताते हैं। निश्चयनय और व्यवहारनय __ज्ञान की प्राप्ति के तीन साधन है - (१) अपरोक्षानुभूति (२) इन्द्रियजन्यनुभूति और (३) बुद्धि। इनमें अपरोक्षानुभूति या आत्मानुभूति निश्चयनय की और इन्द्रियानुभूति या बुद्धि व्यवहारनय की प्रतीक है। तत्त्वमीमांसा में सत् के स्वरूप की व्याख्या के लिए प्रमुख रूप से निश्चय और व्यवहार ये दो दृष्टिकोणों के आधार पर होती है। जैन दर्शन के अनुसार सत् अपने-आप में एक पूर्णता है, अनन्तता है। इन्द्रियानुभूति, बुद्धि, भाषा और वाणी अपनी-अपनी सीमा के कारण अनन्तगुणधर्मात्मक सत् के एकांश का ही ग्रहण कर पाते हैं, यही एकांश का बोध नय कहलाता है। दूसरे शब्दों में, सत् के अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है, वे सभी नय
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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