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________________ जैन अव्यक्तव्यता और बौद्ध अव्याकृतवाद.... १४७ अतएव अब प्रज्ञापना के साधन रूपादि के न होने से तथागत के लिए “है” या “नहीं है" ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अतएव मरणान्तर तथागत “है” या “नहीं है” इत्यादि प्रश्नों को मैं अव्याकृत बताता हैं। मरणान्तर तथागत कि स्थिति को अव्याकृत कहने का एक कारण यह भी हो सकता है कि परमतत्त्व कुछ इतना गुह्य है कि उसके आद्योपान्त का न तो ज्ञान ही संभव है और न इन अशक्त शब्दों (भाषा) से कथन ही संभव है, क्योंकि वह तो अपरिमेय है, अगम्य है, अगोचर है, फिर उसका विधि मूलक वर्णन भी तो उसको संकीर्ण सीमाओं से आबद्ध कर संकुचित कर देता है। बुद्ध ने कहा है कि जैसे गंगा के बालू की नाप नहीं, जैसे समुद्र की गहराई का पता नहीं, वैसे ही मरणोत्तर तथागत भी गम्भीर हैं। अप्रमेय हैं। अतएव अव्याकृत हैं। ___ इसी प्रकार जीव और शरीर के भेदाभेद के प्रश्न को भी उन्होंने अव्याकृत बताया है। उनका कहना था कि जीव और शरीर एक है या भिन्न? इस विषय में भी कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि शरीर को आत्मा से भिन्न माना जाय तो ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं है और यदि अभिन्न माना जाय तो ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं। अतएव इन दोनों अन्तों को छोडकर मध्यम मार्ग का अनुगमन करना ही उचित है। इस प्रकार बुद्ध ने उक्त सभी प्रश्नों को या तो अव्याकृत कहा या उन्हें असमीचीन कह कर टाल दिया। ऐसी बात नहीं है कि बुद्ध उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते थे। वे उन सभी प्रश्नों का उत्तर समुचित ढंग से दे सकते थे । परन्तु उनके समक्ष तीन समस्यायें थी १. सत्ता का गूढतम् स्वरूप। २. जन सामान्य में सत्ता के यथार्थ परिचयात्मक ज्ञान का अभाव। ३. भाषा की सीमायें। ये समस्यायें ऐसी हैं जो बुद्ध को मौन रहने के लिए बाध्य कर दिया। सत्ता के गूढतम् स्वरूप के यथार्थ ज्ञान के अभाव में यदि जन सामान्य से कुछ कहा जाय तो वह तथ्य को यथावत् नहीं समझ सकता है बल्कि लक्ष्य से हटकर कुछ और भी समझने लगेगा। फलतः वह पथभ्रष्ट हो सकता है क्योंकि भाषा भी मात्र संकेत कर सकती है यथावत् अनुभूति नहीं करा सकती। अतः यहाँ मौन रहना ही श्रेयस्कर है ऐसा बुद्ध ने सोचा। ___ इस तरह भगवान् बुद्ध तत्त्व के रहस्य, भाषा की सामर्थ्य और जनता की स्थिति को समझने के बाद जनता को प्राचीन आचार्यों की भांति, इस तरह नहीं समझाना चाहते थे कि परमात्मा एक राजा की तरह है जो समस्त प्रजा पर शासन करता है।
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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