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________________ जैन दर्शन में मन का स्वरूप १४१ बना देते है। इस सम्बन्ध के आधार पर ही बन्धन की धारणा सिद्ध करते है। मन, जड और चेतन के मध्य अवस्थित एक ऐसा माध्यम है जो दोनों स्वतंत्र सत्ताओं में सम्बन्ध बनाये रखता है। जब तक यह माध्यम रहता है तब तक जड तथा चेतन जगत् में पारस्परिक प्रभावकता रहती है, जिसके कारण बंधन का सिलसिला चलता रहता है। निर्वाण की प्राप्ति के पहले मन के उभय पक्षों को अलग करना होता है। इससे मन की शक्ति क्षीण होने लगती है और अन्त में मन का विलय हो जाने पर निर्वाण प्राप्त हो होता है। निर्वाण दशा में उभयात्मक मन का अभाव होने से बंधन की सम्भावना नहीं रहती। मन के इस विशाल कार्यक्षेत्र के विषय में जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन या दार्शनिक ने इतनी स्पष्टतापूर्वक चर्चा की है, प्रतीत नहीं होता। ___ अब जरा विचार करें कि मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण क्यों है? इस पर विचार कर हम पाते हैं कि जैन तत्त्वमीमांसा में जड और चेतन दो मूल तत्त्व है, शेष आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष और निर्जरा इन दो मूलतत्त्वों के सम्बन्ध की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं (योग) का अभाव है। दूसरी ओर मनोभाव से रहित कायिक और वाचिक कर्म एवं जड कर्म परमाणु भी बन्धन कारक नहीं होते हैं। बन्धन के कारण राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव आत्मिक अवश्य माने गये हैं, लेकिन इन्हें आत्मगत इसलिए माना गया है कि बिना चेतन सत्ता के ये उत्पन्न नहीं होते हैं। चेतन सत्ता रागादि के उत्पादन का निमित्त कारण अवश्य है बिना मन के वह रागादि भाव उत्पन्न नहीं कर सकती और वे ही बन्धन के हेतु हैं। अतः मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। बंधन और मुक्ति की दृष्टि से मन की अपार शक्ति मानी गई है। बंधन की दृष्टि से वह पौराणिक ब्रह्मास्त्र से भी भयकंर है। कर्म सिद्धांत का एक विवेचन है कि मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बन्धन उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति का हो सकता है। वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है। घाणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने से पचास सागर और चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति का बन्ध हो सकता है और जब जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं तो हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है। लेकिन यदि मन मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बन्ध होने लगा तो वह लाख और करोड सागर को पार कर जाता है। सत्तर कोडा-कोडी (७० करोड x ७० करोड) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बन्ध मन मिलने पर
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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