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________________ जैन दर्शन में मन का स्वरूप सचिन्द्र जैन ज्ञानशक्ति आत्मा का धर्म है पर उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर के अवयव बनते हैं। जिस प्रकार बोलने के शक्ति उसके प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण एवं परिणमन तथा बोलने का प्रयत्न ये सब आत्मा के बिना नहीं हो सकते यह जितना सत्य है उतना ही यह भी सत्य है कि ये केवल आत्मा से नहीं हो सकते। वाचिक प्रवृत्ति के समान शारीरिक और मानसिक भी सशरीरी आत्मा का गुण है। शरीर और आत्मा का सांयोगिक परिणमन है। बाह्य पदार्थ के आलोचन में जैसे इन्द्रियों की अपेक्षा होती हैं वैसे ही उस पदार्थ के विषय विचारणा, ईहा, अपोह आदि विचार विमर्श तथा वाच्य वाचक का ज्ञान करने के लिए जिस करण की अपेक्षा होती है उसका नाम है-मन। समग्र संकल्प इच्छाएँ, कामनाएँ एवं राग द्वेष की वृत्तियाँ आदि अधिकांश नैतिक प्रत्यय मन प्रसूत हैं, मन ही सद्-असद् का विवेक करता है। यही हमारे शुभा-शुभ भावों का आधार है, अतः मन के स्वरूप पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। चित्तं मनो मानसं वित्रआणं हृदयं मनं। नामानि तानि वोहारपथे वच्चन्ति पायतो।। शाब्दिकों के अनुसार चित्त, चेता, हृदय, स्वान्त और मानस ये मन के पर्यायवाची शब्द हैं। मन का स्वरूप ___ मन के स्वरूप के विषय में मुख्यतः तीन अवधारणाएँ हैं। न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसक के अनुसार मन नित्य है जबकि सांख्य, योग एवं वेदान्त दर्शन के अनुसार मन को अनित्य मानते हैं। बौद्ध दर्शन भी मन को क्षणिक मानता है। जैन दर्शन के अनुसार कोई भी पदार्थ सर्वथा नित्य वा अनित्य नहीं होता अतः मन को भौतिक और अभौतिक मानता है। द्रव्यमन और भावमन ___ जैन दर्शन में मन के भौतिक स्वरूप को द्रव्यमन और चेतन रूप को मन कहा गया है। द्रव्यमन मनोवर्गणा नामक परमाणुओं से बना है। यह मन का आंगिक एवं संरचनात्मक पक्ष है। साधारणतया इसमें शरीर के सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७-नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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