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________________ १३२ ऋषभ जैन तात्पर्य विकार निर्मूलन (उच्छेदन) से है जो कि अन्यत्र नहीं पाया जाता और जिसके होने पर उक्त पाप कर्मों का आत्मा के साथ किसी प्रकार का अंशमात्र भी संबंध नहीं रह जाता है। विचारणीय है कि निर्धृत कलिलात्मा का अर्थ वीतरागता करना चाहिए अथवा निर्दोषता? प्रश्न हो सकता है कि वीतरागता और निर्दोषता में क्या अंतर है? उत्तर सहज है कि मोहकर्म के अभाव से वीतरागता और सम्पूर्ण दोषों के न रहने पर सर्वज्ञता हआ करती है। जिनागम में १८ दोष गिनाये जाते हैं। वे मात्र मोह कर्म से ही सम्बन्ध नहीं रखते। उनका सम्बन्ध आठों कर्मों से है। वीतरागता और निर्दोषता में विषम व्याप्ति है न कि सम व्याप्ति अर्थात् जहाँ वीतरागता है वहाँ निर्दोषता भी हो यह नियम नहीं। परन्तु जहाँ निर्दोषता है वहाँ वीतरागता अवश्य हुआ करती है क्योंकि आश्चर्य आदि दोषों के कारणभूत ज्ञानावरणादि का जहाँ तक उदय रहता है वहाँ तक वास्तव में वीतरागता के रहते हुए भी निर्दोषता नहीं कही जा सकती। परन्तु यह बात सत्य है कि वीतरागता हो जाने पर ही निर्दोषता हुआ करती है। इसलिए आगम में सर्वज्ञ को १८ दोषों से रहित बताया है। न कि छद्मस्थ क्षीण मोह को। अतएव समन्तभद्र आप्त की वीतरागता के साथ साथ निर्दोषता भी सिद्ध करना चाहते हैं। पाँचवी कारिका में 'उच्छिन्न दोषेण' कहकर उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की है। क्योंकि निर्दोष कहने से तो वीतरागता का अर्थ भी सम्मिलित हो जाता है परन्तु यदि वीतरागता मात्र ही अर्थ लिया जाए तो निर्दोषता का अर्थ नियमित रूप से उसमें गर्भित हो गया ऐसा नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में वीतरागता के संबंध में केवल मोहनीय कर्म के अभाव से और निर्दोषता का संबंध सम्पूर्ण घातिकर्मों के निर्मूल हो जाने पर साथ साथ अन्य असाता वेदनीय आदि पापकर्मों के अपना अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाने से भी है। तब वीतरागता की अपेक्षा निर्दोषता ही प्रधान और महान सिद्ध होती है। अतएव उस विशिष्ट धर्म को ही यहाँ बताना अधिक उचित एवं संगत प्रतीत होता है। देशना की पूर्णता ही कर्मों से है। आप्त पुरूषों में प्रामाणिकता के लिए वीतरागता और सर्वज्ञता इन दो गुणों की आवश्यकता है उनमें उत्पत्ति का क्रम भी ऐसा ही है कि पूर्ण वीतरागता के हो जाने पर ही सर्वज्ञता सिद्ध हुआ करती है। आत्मा का विशेष गुण चेतना है उसकी आगम में तीन दशायें बताई गयी हैं - कर्मचेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञानचेतना। सर्वज्ञता ज्ञानचेतना का सर्वोत्कृष्ट अन्तिम स्वरूप है। इसे दर्पण के दृष्टान्त से समझाया गया है। जैसे दर्पण के सामने आए हुए सभी पदार्थ उसमें स्वयं प्रतिबिंबित होते हैं। वैसे ही सर्वज्ञता में लोकालोक
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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