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अनिल कुमार सोनकर
जैनाचार्यों ने परिग्रह के त्याग पर बल दिया जिससे अनासक्ति को आचरण में उतारा जा सके। अनासक्ति की धारणा को व्यवहारिक रूप देने हेतु ही जैन-धर्म में गृहस्थ जीवन में परिग्रह-मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश अभिहित है। आसक्ति और अपरिग्रह मे सूक्ष्म अन्तर है-अपरिग्रह में ममत्व के साथसाथ सम्पदा का विसर्जन होता है, यह सामाजिक तथा व्यवहारिक दोनों स्तर पर होता है। इसके विपरीत अनासक्ति वैयक्तिक है तथा इसमें केवल ममत्व का विसर्जन होता है। वस्तुतः अनासक्ति एवं अपरिग्रह दोनों से ही आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है। अपरिग्रह का सिद्धान्त अर्थ-अर्जन के पक्ष में उसे सीमा तक रहता है, जहाँ तक उसके साथ शोषण की दुष्प्रवृत्ति संयुक्त नहीं रहती है। यद्यपि अपरिग्रह का कोई सार्वभौम मानदण्ड सम्भव नहीं है, तथापि इसका निर्धारण देश-काल, व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर अवश्य है। पुनश्च, यद्यपि परिग्रह-मर्यादा की अवस्था में समान वितरण और समाज में शान्ति व एकता स्थापित हो, तथापि मानसिक शान्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि मानसिक शान्ति हेतु तृष्णा का निरुन्धन आवश्यक है और यह अनासक्तावस्था में ही सम्भव है। वस्तुतः जब अपरिग्रह अनासक्ति से फलित होता है तभी व्यक्ति एवं समाज के बीच सच्ची शान्ति व समता की संस्थापना होती है।
उक्त तथ्यों पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट परिलक्षित होगा कि मानव जीवन की समग्र समस्याओं/विषमताओं (समकालीन अथवा वर्तमान युगीन) के मूल में राग-द्वेष तथा राग के सह प्रत्यय कषाय-चतुष्क (संग्रह, आवेश, गर्व और माया)हैं। राग-द्वेष के निमित्त ही मानव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति का परित्याग कर भौतिक पदार्थों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है। फलतः मानव-जीवन को सार्थक बनाने वाले जीवन-मूल्यों (सुख-समृद्धि, शान्ति, समता, एकता, विनयशीलता, संयम प्रभृति सद्गुणों) का परित्याग कर विषमता, हिंसा, संघर्ष, स्वार्थपरता, अन्याय, अत्याचार प्रभृति दुष्प्रवृत्तियों को प्राप्त करता है, जिससे वह स्वयं अशान्त व व्यथित होता है, परिवार, समाज व राष्ट्र भी चिंतित व परेशान होता है। यहाँ स्वाभाविक प्रश्न समुत्पन्न होता है- वह कौन सी अवस्था है? जिसे प्राप्तकर मानव राग-द्वेष व उसके सहप्रत्ययों से सर्वदा के लिए मुक्त हो सकता है। इस जिज्ञासा के निवारणार्थ एक ही अवस्था मानव-चक्षु के सामने देदीप्यमान होती है और वह अवस्था है-समत्वप्राप्ति की। पुनश्च, स्वाभाविक जिज्ञासा समुत्पन्न होती है कि समत्व-संस्थापना में जैन-धर्म तथा आत्मीयता प्रेम, त्याग, समर्पण और सहयोग के आधारभूत स्तम्भ