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हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा में प्रमाणलक्षण
प्रमाण - लक्षण में अपूर्व पद रखने के कारण सूक्ष्म काल - कला का भान मानकर ही उसमें प्रामाण्य का उत्पादन करती है। इसी प्रकार बौद्ध दार्शनिक अर्चट ने अपने हेतुबिन्दु की टीका में सूक्ष्म-कला के भान के कारण योगियों के धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना है । १४
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जहाँ तक जैनों का प्रश्न है, सामान्यतया दिगम्बर आचार्यों ने अपने प्रमाणलक्षण में ‘अपूर्व' पद को स्थान दिया है, अत: उनके अनुसार धारावाहिक ज्ञान, जब क्षण भेदादि विशेष का बोध कराता हो और विशिष्ट प्रमाजनक हो तभी प्रमाण कहा जाता है। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य अपने प्रमाण - लक्षण मे 'अपूर्व' पद नहीं रखते हैं और स्मृति के समान धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र ने अपने प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा, इसका उत्तर भी उनकी प्रमाणमीमांसा में मिल जाता है। आचार्य स्वयं ही स्वोपज्ञ टीका में इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष की उद्भावना करके उत्तर देते है । प्रतिपक्ष का कथन है कि धारावाहिक स्मृति आदि ज्ञान अधिगतार्थक पूर्वार्थक है और इन्हें सामान्यतया अप्रमाण समझा जाता है। यदि फिर भी इन्हें अप्रमाण मानते हो तो (तुम्हारा ) सम्यगर्थ निर्णयरूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है ? प्रतिपक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा था कि यदि धारावाहिक ज्ञान और स्मृति प्रमाण है तो फिर प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद निरर्थक हो जाता है। पं. सुखलालजी का कथन है कि " श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने गृहीतग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही में समत्व दिखाकर सभी धारावाहिक ज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है, वह विशिष्ट है।" यही कारण है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण - लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद की उद्भावना नहीं की है।
वस्तुत: हेमचन्द्र के प्रमाण - लक्षण की अवधारणा हमें पाश्चात्य तर्कशास्त्र के सत्य के संवादितासिद्धान्त का स्मरण करा देती है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र मे सत्यता निर्धारण के तीन सिद्धान्त है - संवादिता सिद्धान्त, गति सिद्धान्त और उपयोगितावादी या अर्थक्रियावादी सिद्धान्त । उपर्युक्त तीन सिद्धान्तों में हेमचन्द्र का सिद्धान्त अपने प्रमाण - लक्षण में अविसंवादित्व और अपूर्वता के लक्षण नहीं होने से तथा प्रमाण के सम्यगर्थ निर्णय के रूप में परिभाषित करने के कारण सत्य के संवादिता सिद्धान्त के निकट है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण - लक्षण -निरूपण में अपने पूर्वाचार्यों के मतों को समाहित करते हुए भी एक विशेषता प्रदान की है।