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________________ 12 :: मूकमाटी-मीमांसा हुए । कवि ज्ञान, पाण्डित्य, दर्शन सब कुछ को संवेदन में ऐसा विलयित कर लेता है कि वे अपना पाथर्पा खो दें और रसधारा का अविभाज्य अंश प्रतीत हों। कबीर ने आध्यात्मिक प्रेमभाव की अभिव्यक्ति के लिए स्वयं को राम की बहुरिया रूप में चित्रित किया :"दुलहिन गावहु मंगलचार/मोरे घर आए राजा राम भरतार ।" 'मूकमाटी' में दर्शन सम्प्रदाय के रूप में नहीं प्रवेश पाता, अन्यथा यहाँ अश्वघोष के 'बुद्धचरित' जैसी कठिनाई होती। आचार्य विद्यासागर ने अहिंसा, करुणा, अपरिग्रह, विवेक आदि जिन उच्चतर मानव मूल्यों पर बल दिया है, वह सन्त कवि की बड़ी मूल्य चिन्ता के अन्तर्गत है : “यहाँ पर इस युग से/यह लेखनी पूछती है/कि/क्या इस समय मानवता पूर्णत: मरी है ?/क्या यहाँ पर दानवता/आ उभरी है ?" (पृ. ८१) आश्चर्यजनक लग सकता है पर आचार्य विद्यासागर की विरागी वृत्ति में अपने समय के प्रति गहन आकुलता है जिस ओर प्राय: उस पूर्वाग्रही दृष्टि का ध्यान नहीं जा सकता जो वैराग्य को जीवन असम्पृक्त मानने की भूल करती है । ऐसा प्रतीत होता है 'मूकमाटी' का कवि अपने समय से बेहद विक्षुब्ध है और इस सात्त्विक आक्रोश के लिए कलिकाल वर्णन का सहारा लिया गया है, भागवत और तुलसीदास की तरह । मूल्यों की विकृति का वर्णन करते हुए तुलसी ने 'कलि' के माध्यम से मध्यकाल के भयावह यथार्थ का संकेत किया है, यहाँ तक कि : "बिनु अन्न दुखी सब लोग मरें।” कलिकाल को आचार्य विद्यासागर विषय परिचालित, अर्थ केन्द्रित मानते हैं : "अधिक अर्थ की चाह-दाह में/जो दग्ध हो गया है अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण/यूँ-जान-मान कर, अर्थ में ही मुग्ध हो गया है" (पृ. २१७) इसे उन्होंने कलि-काल की वैषयिक छाँव' को एक प्रकार से 'वैश्यवृत्ति के परिवेश में वेश्यावृत्ति की वैय्यावृत्य' कहा है । मनुष्य की स्थिति यह है कि भोग-विलास की सामग्री में तुष्टि खोजता है, पर मन को विश्राम नहीं-एक निरन्तर उद्विग्न असन्तुष्ट चेतना जो भटकती रहती है। कवि ने इसे मछली के माध्यम से कहा है : “जल में जनम लेकर भी/जलती रही यह मछली" (पृ. ८५)। कबीर ने ऐसा ही प्रश्न उठाया है कि ईश्वर-जन्मा होकर भी आत्मन् दुःखी क्यों है ?- "काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी।" इसका कारण है विषयकेन्द्रित माया, जिसके अनेक रूप हैं, जो जीवन को विकारग्रस्त करती है। समय का एक अभिशाप है-अर्थोन्मुखी दृष्टि, जिसे प्रसाद ने 'कामायनी' में अतिरिक्त भौतिकवाद कहा है। पदार्थ सत्य है, माना, पर अर्थ अन्तिम सत्य कैसे हो गया? आचार्य विद्यासागर सन्त-कवि के रूप में इस मूलभूत प्रश्न से उलझते हैं और एक चरित्र के माध्यम से अपने मूल्य चिन्तन को अग्रसर करते हैं। 'मूकमाटी' में महासेठ की कल्पना की गई है, जो अर्थ-प्रतीक है, धन को सर्वत्र स्वीकारता, मणि-माणिक्य-मुक्ता में आबद्ध । अपने प्रतीक को पूर्णता देने के लिए आचार्य विद्यासागर मृत्तिका कुम्भ और स्वर्ण कलश की लम्बी बातचीत दिखाते हैं जो वास्तव में दो पृथक् जीवन दृष्टियों का संघर्ष है । अन्त में अहंकार-डूबा स्वर्ण कलश शिल्पी के कुम्भ से पराजित होता है-गाँधीवादी हृदयपरिवर्तन जैसा । अपने आशय को परिपुष्ट करने के लिए कवि ने उसे विस्तार दिया है : "हे स्वर्ण-कलश !/दुखी-दरिद्र जीवन को देखकर/जो द्रवीभूत होता है वही द्रव्य अनमोल माना है/दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का ?
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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