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________________ lxxiv :: मूकमाटी-मीमांसा ७. 'मूकमाटी' में लोकमंगल और आत्ममंगल के विविध संकेत, साधन और समाधान ८. विविध भारतीय दर्शनों के सन्दर्भ में 'मूकमाटी' में निर्दिष्ट दर्शन की आपेक्षिक और तुलनात्मक विशेषता का निरूपण ९. 'मूकमाटी' में क्रमागत भंगिमाएँ और नवाविष्कृत चमत्कारिक भंगिमाएँ १०. 'मूकमाटी' में पात्रों की मनोदशाओं का मनोविज्ञान के आलोक में विवेचन ११. शान्त रस की पक्ष-प्रतिपक्ष पूर्वक स्थापना और 'मूकमाटी' में उसकी निष्पत्ति की प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन १२. हिन्दीतर विभिन्न भारतीय भाषाओं में निबद्ध महाकाव्यों के साथ 'मूकमाटी' के तुलनात्मक वैशिष्ट्य का आकलन १३. पाश्चात्य प्रतिष्ठित महाकाव्यों के सन्दर्भ में 'मूकमाटी' का वैशिष्ट्य निर्धारण इस प्रकार अभी भी और सम्भावित बिन्दु विचारार्थ लिए जा सकते हैं और खोज के नए-नए द्वार उद्घाटित किए जा सकते हैं। यह प्रबन्ध काव्य अपनी संयोजना में सर्वांग अभिनव प्रयोग का साहस लेकर सहृदयों की सभा में उपस्थित हुआ है, अत: उस पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ आई हैं और आती रहेंगी। प्रसाद की कामायनी' पर इसी प्रकार निरन्तर पक्ष-प्रतिपक्ष बनते रहे पर आज वह एक छायावादी महाकाव्य के रूप में प्रतिष्ठित हो ही गई है। काल के निर्मम निकष पर यह भी कसा जायगा, यदि अपनी प्राणवत्ता इसमें होगी तो निस्सन्देह महाकाव्यों की परम्परा में इसे भी जगह मिलेगी या यह स्वयं अपनी जगह बना लेगा । नए प्रयास को जमे हुए लोगों के बीच अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में समय लगता ही है। इस सन्दर्भ में कविकुलगुरु कालिदास की उक्ति याद आती है : "पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् । सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥" सन्त वे ही हैं, सहृदय समीक्षक वे ही हैं जो बँधी-बँधाई लीक नहीं पीटते और स्वयं विवेकपूर्वक परीक्षा करके निर्णय लेते हैं कि कृति कहाँ तक ग्राह्य या अग्राह्य है । अन्तत: निर्णय ऐसे ही लोग देंगे, इस विश्वास के साथ यह लेखनी यहीं विराम लेती है। पुनश्च, प्रस्तुत कृति इस रूप में सुसम्पादित होकर कभी भी न आ पाती, यदि मुनिवर्य श्री अभयसागरजी की अनन्य निष्ठा, अटूट श्रम और दुर्लभ धैर्य का कांचन किंवा पारस संस्पर्श न मिलता । जिस त्रुटि परिहार, परिष्कार और समुचित सुधार की बाट जोहते वर्षों बीत गए और उस चुनौती को उठाने वाला कोई नहीं दिखा, उस समय मुनिश्री ने स्वयं इस गुरुतर भार को उठाने का अदम्य संकल्प लिया। प्रसिद्ध श्लोक है : "प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पन:पनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारभ्य उत्तमजना न परित्यजन्ति॥" 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि'-श्रेय: सम्पादन में विघ्न आते ही हैं। ऊर्ध्वगमन में अध:कर्षक शक्तियाँ सक्रिय होती ही हैं। यह जानकर निम्नकोटि के लोग विघ्नभीत होकर शुभकार्य का आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम कोटि के साधक आरम्भ तो कर देते हैं परन्तु विघ्नों से प्रतिहत होकर मध्य में ही विरत हो जाते हैं। वे साधक उच्चकोटि के हैं जो बारबार विघ्नविहत होने पर भी आरब्ध को छोड़ते नहीं हैं, प्रत्युत उसे अभीष्ट गन्तव्य बिन्दु तक ले जाकर ही रुकते हैं। मुनिवर्य श्री अभयसागरजी ऐसे ही उत्तमकोटि के साधकों में परिगणित किए जाएंगे। इतने अनुयायियों और अनुधावियों
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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