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________________ lxiv :: मूकमाटी-मीमांसा ठीक नहीं है : "आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ । अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ॥" प्र.वा.- १।१२१ ॥ आत्मा तीन प्रकार के हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । शरीरादि परपदार्थ में आत्मबुद्धि है तो बहिरात्मा, सम्यग्दृष्टि की पर-पदार्थ से आत्मबुद्धि हट गई है सो अन्तरात्मा और वही क्रमश: परमात्मा हो जाता है। जीव और अजीव का योग ही बन्ध है और मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच उसके कारण हैं। असम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि है । अविरति- व्रताचरण का अभाव, विशिष्ट रति का अभाव है। प्रमाद असावधानी है। क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय हैं । काय-वचन एवं मन का कर्म यानी कार्य ही योग है । बन्धन-मुक्ति ही मोक्ष है, जो इन कारणों के हटाने से सम्भव है । मोक्ष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र-तीनों के होने से होता है, चारित्र शून्य मात्र सम्यग्ज्ञान या मात्र सम्यग्दर्शन से नहीं । वैदिकधारा मात्र ज्ञान से ही मुक्ति मानती है। स्वरूपप्रच्यव मिथ्या दृष्टि से होता है, अतः सर्वविध पतन का मूल कारण वही है। इसलिए सम्यक् दृष्टि होना आवश्यक है । यह हो कैसे ? द्रव्यगत शक्तियाँ नियत हैं पर उनके परिणाम अनिवार्य होकर भी अनियत हैं। परिणमन निमित्त के सद्भाव पर निर्भर करता है । जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य का ही खेल यह जगत् है। दोनों परस्पर के परिणमन में निमित्त हैं और दोनों की अपनी शक्तियाँ नियत हैं। इन्हें कोई कम-ज्यादा नहीं कर सकता। वहाँ हमारा पुरुषार्थ काम नहीं दे सकता । हमारा पुरुषार्थ सम्भावना को उपलब्धि का आकार देने में है, कोयले के हीरापर्याय के विकास में है। कोयले में यह सम्भावना है । जब कर्मबन्ध और तदनुरूप निमित्तवश प्रत्येक जीव का प्रतिसमय कार्यक्रम निश्चित है अर्थात् परकर्तृत्व तो है ही नहीं, स्वकर्तृत्व भी नहीं है, तब पुरुषार्थ क्या अर्थ रखता है ? स्वातन्त्र्य कहाँ है पुरुषार्थ का? नियतिवाद में पुरुषार्थ कहाँ है ? उपादान में जैसी योग्यता होगी और निमित्त जैसा मिलेगा, वैसा होगा । इस नीरन्ध्रलौहचक्र में स्वातन्त्र्य कहाँ ? पुरुषार्थ कहाँ ? पाप-पुण्य कहाँ ? परिणमन नियत है, पर जिस हेतु से नियत है, उसे हेतु बनने में तीन कारण हैं-एक तो वह कार्य से अव्यवहित 'पूर्वक्षण में विद्यमान' हो, दूसरे ‘अप्रतिबद्ध' हो, तीसरे ‘अविकल' हो । रागादि कषाय का, जिन का उपादान आत्मा है, निमित्त पुद्गल हैं, अतएव रागादि कषाय या वासना पौद्गलिक कहे जाते हैं। अध्यात्म उभयविध कारण से कार्य होता है, यह मानता है, पर यह उपादान का सुधार चाहता है, उसकी दृष्टि इसी पर रहती है। अत: वह प्रतिसमय अपने मूलस्वरूप की याद दिलाता रहता है कि तेरा स्वरूप तो शुद्ध है, ये रागादि कुभाव परनिमित्त से उत्पन्न होते हैं, अत: पर निमित्तों को छोड़ । इसी में अनन्त पुरुषार्थ है, न कि नियतिवाद की निष्क्रियता में । कार्य मात्र के लिए उपादान और निमित्त-दोनों कारण हैं। दोनों की समग्रता ही द्रव्यगत निजस्वभाव है । यह सही है कि अध्यात्मनिष्ठ पुरुष के लिए बाह्य निमित्त गौण हैं । मोक्ष के लिए दोनों आवश्यक हैं। स्वामी समन्तभद्र ने 'स्वयम्भू-स्तोत्रम्' में कहा है : "बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवाऽन्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाऽभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम्" ॥६०॥ जीव के भावों के निमित्त से पुद्गलों का कर्मरूप पर्याय होता है और पुद्गलों के कर्मरूप पर्याय से जीव रागादि रूप से परिणमन करता है । उपादानदृष्टि से आत्मा अपने भावों का कर्ता है । पुद्गल के ज्ञानावरणादि रूप द्रव्यकर्मात्मक परिणमन का कर्ता नहीं है। अहंकार या ममकार घातक है । उपादान आत्मा के गुण-विकास में हमारा स्वातन्त्र्य है, पर वे गुण यदि आत्मा में न होते तो क्या मैं पैदा कर लेता ? या अनुरूप निमित्त न मिलता तो उपादान में भी सम्भावित गुणों
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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