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lxii :: मूकमाटी-मीमांसा
जैन प्रस्थान में तीर्थंकरत्व ही सेवा का आदर्श है । केवलज्ञान की प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान में और सिद्धिलाभ चौदहवें गुणस्थान को पार करने पर होता है। सामान्यत: केवलज्ञान पाकर भी उसे सभी प्राणियों में देने का कार्य नहीं होता, पर यह तीर्थंकर में अवश्य ही होता है, जो एक प्रकार से सेवा भाव है । ब्राह्मण धर्म का सद्गुरु, बुद्ध धर्म का सम्बुद्ध और जैन प्रस्थान का तीर्थंकर भी सेवा या निष्काम कर्म का परम आदर्श है। जब तक जीव का ग्रन्थिविच्छेद नहीं होता तब तक शुद्धिलाभ नहीं होता। शुद्धिलाभ की पूर्णता तीर्थंकरत्व में ही है । जिस जीव में ग्रन्थिविच्छेद होते ही विश्ववेदना का अनुभव होने लगे, फलत: उसकी निवृत्ति में संलग्न हो जाय, वही जीव तीर्थंकर हो पाता है और वही सेवा का उच्च आदर्श प्राप्त कर सकता है। केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद सिद्ध घट अपने प्रति समर्पित (सेठ परिवार) के उद्धार में संलग्न हो जाता है। इसी सेवाभाव और चारित्र में कृति परिसमाप्त होती है। कृति की परिसमाप्ति में सन्त की धारणा
है:
“बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है ।
इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है ।" (पृ. ४८६) साधक के संकल्प की यह निष्पन्नता है।
साधक घट की सम्यक् श्रद्धा कैसी है-निसर्गज अथवा अधिगमज ? अनन्त सम्भावनाओं का उपादान तो वह है, पर निमित्त कौन है ? मोक्ष, इस बन्धन से कैसे प्राप्त हो-यह बेचैनी तो घट में सहज है, परन्तु तदर्थ अपेक्षित मोक्षमार्ग का निर्देश कौन करे ? सम्यग्दर्शन कैसे और कहाँ से आए ? इस कृति में अपनी ही अंशी धरती के उपदेश से आस्था या श्रद्धा की नासा घट को मिलती है, अत: अधिगमज ही कहा जा सकता है।
___ ब्राह्मण प्रस्थान में उपादानगत सम्भावनओं को मूर्त होने के लिए पारमेश्वर अनुग्रह की आवश्यकता नहीं है। कारण, वहाँ अतिरिक्त ईश्वर की कल्पना ही नहीं है । संसार अनादि है । उसके निर्माण के लिए ईश्वर की अपेक्षा नहीं है। 'मानस तरंग' में इसकी सम्यक् उपस्थापना की गई है। यहाँ केवल उपादान है और उसमें निहित सम्भवानाओं को मूर्त होने में निमित्त कारण भी हैं, जिनमें से कुछ उदासीन होते हैं और कुछ प्रेरक । उनका प्रतिबन्ध राहित्य तो अपेक्षित है ही, सामग्रय भी अपेक्षित है । आलोच्य कृति में अपने प्रस्थान की अनेक दार्शनिक और पारिभाषिक पदावलियाँ प्रयुक्त हुई हैं, उन सब पर विचार इस संक्षिप्त भूमिका में सम्भव नहीं है । ग्रन्थकार की तो प्रतिज्ञा ही है कि यहाँ काव्योचित और रोचक पद्धति पर सैद्धान्तिक मान्यताएँ निरूपित की जायँ, फलत: वे संवादों से भरी पड़ी हैं।
____ आचार्यश्री ने भारतीय ही नहीं, प्रायः विश्व के सभी दर्शनों में बहुचर्चित 'नियति' और 'पुरुषार्थ' का द्वन्द्व भी उठाया है और अपनी चिर परिचित निरुक्ति पद्धति का भी सहारा लिया है। 'नियति' और 'पुरुषार्थ' की विभिन्न व्युत्पत्तियाँ सम्भव हैं। चतुर्थ खण्ड में सेठ अतिथि सद्गुरु से प्रार्थना करता है :
"कैसे ब₹ मैं अब आगे !/क्या पूरा का पूरा आशावादी बनूँ ? या सब कुछ नियति पर छोड़ दूँ ?/छोड़ दूं पुरुषार्थ को ? हे परम-पुरुष ! बताओ क्या करूँ ?/...कर्ता स्वतन्त्र होता हैयह सिद्धान्त सदोष है क्या ?" (पृ.३४७-३४८)
सद्गुरु उत्तर देते हैं:
“ 'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन - स्थिरता है