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मूकमाटी-मीमांसा :: lix
पाया जाता है । अहंकार आग है और विनम्रता पानी। आग पानी पर अपना असर दिखा सकती है पर पानी तो तब भी उसकी सत्ता समाप्त कर सकता है । वीर में अहम्भाव होता है, भले ही धीरोदात्त में वह विनयच्छन्न हो, शान्त में उसका अस्तित्व नि:शेष हो जाता है । कुम्भकार शान्त रस का पक्षधर है । वह मानता है कि उसका कहीं भी अन्तर्भाव नहीं हो सकता । इस प्रसंग में वीर रस की व्यंजना तो व्याज है । वस्तुत: शान्त के प्रतिपक्षी रूप में उसका नकार ही उपदिष्ट है। हास्य रस
वीर रस की अनुपयोगिता पर शिल्पी का वक्तव्य सुन कर माटी की महासत्ता के अधरों से हास्य फूट पड़ा और उपहासास्पद बने वीर रस की महत्ता पर कुछ कह चला । शिल्पी ने हास्य का भी उपहास किया और उसकी भी अनुपयोगिता यह कह कर जताई कि खेद-भाव के विनाश हेतु भले ही हास्य उपयोगी हो, पर शान्त में उपयोगी वेद-भाव के विकास हेतु हास्य का त्याग ही अनिवार्य है । कारण, अन्तत: वह भी कषाय ही है । फिर हँसोड़ में कार्याकार्य का विवेक कहाँ होता है और शम के लिए नित्यानित्य के विवेक की परम आवश्यकता होती है। रौद्र रस
शान्त के पक्षधर शिल्पी पर हास्य ने अपना प्रभाव जमते न देख कर रौद्र का स्मरण किया । अनुभाव वर्णना द्वारा रौद्र का प्राकट्य हुआ, महासत्ता माटी के भीतर से । शिल्पी ने उसे भी फटकारा और सौम्य मुद्रा में निर्भीक होकर बोला। एक है रुद्रता, जो विकृति है और दूसरी ओर भद्रता है, जो प्रकृति है। पहली समिट है और दूसरी अमिट । इस वक्तव्य से रौद्र रस अपनी भयावहता में और भयावह आकार ग्रहण करता है, जिससे शिल्पी में भीति' उदित हो, पर शिल्पी मतिमान् है। उसकी मति भीति का सामना करने को उद्यत है-एक सभय है, दूसरा अभय है । बीच में है उभयवती मति । मति अभया हो जाती है। यह शिल्पी पुरुष का प्रभूत प्रभाव है । शान्त के आगे उसका भी वश नहीं चला। अद्भुत रस
यह एक असाधारण, फलत: अद्भुत घटना थी। ऐसी अद्भुत कि विस्मय को भी विस्मय हो आया। उसकी पलकें अपलक रह गईं और वाणी मूक हो गई। श्रृंगार रस
विस्मय का भी शान्त पर कुछ प्रभाव चलते न देख शृंगार के मुख का आब उतरने लगा। शिल्पी को उन विषयान्ध शृंगारिकों पर तरस आया । कारण, वे विषय के अन्धकार में निमग्न हैं। शिल्पी की दृष्टि से रस तो शान्त ही है, शेष में परसंसर्गज विकार हैं। उनमें वैभाविक रस है जो वस्तुत: अरस है । शान्त रस के उपासक को रूप की नहीं, अरूप की प्यास रहती है, इसीलिए जड़ शृंगारों से उसे क्या प्रयोजन ? उसका संगीत संगातीत है और प्रीति अंगातीत । इस प्रकार शृंगार का भी निषेध्य रूप से वर्णन हुआ। बीभत्स रस
स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुनकर प्रकृति की नासा प्रवाहित होने लगी, बीभत्स के विभावों का जमघट लग गया। जिन अंगों को देखकर राग होता है, उन पर बीभत्स वैराग्य पैदा कर मानों वह भी शृंगार को नकार देता है। इस प्रकार बीभत्स शृंगार से हटाकर चेतना को शान्त रस की ओर उन्मुख कर देता है। करुण रस
प्रकृति और लेखनी ही नहीं, स्वयं करुणा भी अपने बाल-स्वरूप कण-कण में उफनती संघर्ष परायण और ध्वंसावसायी भावों की स्थिति देखकर फफक उठती है । शिल्पी इस अति को देखकर स्तब्ध रह जाता है और कहता है औरों की तुलना में करुणा हेय नहीं, उपादेय है पर उसकी भी सीमा है। उसकी सही स्थिति समझनी है। दिशाबोधिनी