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मूकमाटी-मीमांसा :: lvii धरती की भावना सुनकर कुम्भ सहित सबने कृतज्ञता की दृष्टि से कुम्भकार की ओर देखा और निरभिमान प्रशान्त कुम्भकार ने कुछ ही दूर पर पादप के नीचे पाषाण फलक पर आसीन वीतराग साधु की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया । गुरुदेव ने प्रसन्न मन से अभय का हाथ उठाते हुए कहा :
"शाश्वत सुख का लाभ हो।” (पृ. ४८४) यही शाश्वत स्वभाव सुख का लाभ शान्त रस का लाभ है । परन्तु आतंकवादी कहता है कि संसार के क्षणिक सुख का तो उसे अनुभव है परन्तु अक्षय सुख' पर उसे विश्वास नहीं हो रहा है । यदि वीतराग गुरुदेव अविनश्वर सुख पाने के बाद उसे उन्हें भी दिखा सकें, अपना अनुभव बता सकें, तो वह भी उसके प्रति आश्वस्त हो सके और अनुरूप साधना में उतरे। दल की धारणा सुनकर सन्त कहते हैं कि बन्धनरूप तन, मन और वचन का आमूल मिट जाना ही मोक्ष नामक चरम पुरुषार्थ है। इसी की शुद्ध दशा में अविनश्वर सुख होता है । इस पर भी यदि उसे विश्वास न हो तो आचरण करके विश्वास पूर्वक वह उस जगह पहुँचे जहाँ वीतराग स्थित है, तभी उसे सन्त के वचन पर विश्वास होगा और वह अविनश्वर सुख भोगेगा। तभी विश्वास को अनुभूति मिलेगी, पर मार्ग में नहीं, मंज़िल पर । शान्त रस की अनुभूति वस्तुत: मुक्त को ही होती है, वीतराग को ही होती है, समाधि में भी और व्युत्थान में भी।
___ मुक्तिकामी जीव के प्रतीक घट में विषय-संसर्ग से उत्पन्न वैभाविक सुख के प्रति निर्वेद है, वैराग्य है । यही अनित्य भावना 'विभाव' है । घट कहता है, माटी का पर्याय घट :
० "सुख-मुक्ता हूँ/दुःख-युक्ता हूँ/तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ !" (पृ. ४) - "इस पर्याय की/इति कब होगी?/इस काया की/च्युति कब होगी ?
बता दो, माँ "इसे !" (पृ. ५) कुम्भ-मुक्तजीव का प्रतीक-में शान्त का 'अनुभाव' जगह-जगह वर्णित हुआ है । गहन साधना और तप से उसका कषाय शान्त हो गया है, समस्त तृष्णा का क्षय हो चुका है, शम या तत्त्वज्ञान हो गया है एवं सभी प्रकार के उपसर्ग और परीषहों को वह पार कर चुका है । सेठ के यहाँ से भेजा हुआ सेवक जब उसके मुक्तभाव या परिपक्वावस्था की परीक्षा करता है, तब उसमें से 'सा-रे-ग-म-प-ध-नि' की ध्वनि सुनाई पड़ती है, अर्थात् उसके रोम-रोम से यह ध्वनि निकल रही है कि समस्त प्रकार के दु:ख आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं। यह शान्त रस और मुक्त वीतराग का अनुभव ही तो है। सेठ के समुद्धार का सारा प्रयास शान्त' का प्रचारण ही तो है, उसका कार्य ही है । इन सब चेष्टाओं से उसमें शान्त या मोक्ष की प्रतिष्ठा प्रमाणित होती है।
रहे व्यभिचारी भाव, सो उनके विषय में भी देखना चाहिए। इस पर्याय की इति कब होगी'- इस पंक्ति में प्रयुक्त 'कब' पद से 'कालाक्षमत्व' रूप औत्सुक्य' नामक व्यभिचारी भाव की व्यंजना है । आलोच्य ग्रन्थ में स्थानस्थान पर अनेक संचारियों की व्यंजना हुई है। अभीष्ट की प्राप्ति से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति का नाम हर्ष' है । इसकी व्यंजना उन पंक्तियों से है जिनमें इष्ट शिल्पी का अपनी तरफ आना वर्णित हुआ है :
"अपनी ओर ही/बढ़ते बढ़ते/आ रहे वह ।
श्रमिक-चरण"/और/फूली नहीं समाती।" (पृ. २५) 'हर्ष' की व्यंजना अनेकत्र है, वहाँ भी जहाँ घट अनेक परीक्षाओं से गुज़रता हुआ मंज़िल पा लेता है अथवा वहाँ भी जहाँ वह उपासक सपरिवार सेठ को पार लगा देता है । संस्कारजन्य ज्ञान ‘स्मृति' है :