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524 :: मूकमाटी-मीमांसा
छठी भक्ति है - नन्दीश्वरभक्ति । यह १६ जून, १९९१ को सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी, बैतूल, मध्यप्रदेश में अनूदित हुई थी जबकि शेष भक्तियाँ गुजरात प्रान्तवर्ती श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महुआ, सूरत, गुजरात में २२ सितम्बर, १९९६ को अनूदित हुई थीं। नन्दीश्वर-यह अष्टम द्वीप है, जो नन्दीश्वर सागर से घिरा हुआ है । यह स्थान इतना रमणीय और प्रभावी है कि उसका वर्णन पढ़कर स्वयं आचार्यश्री तो प्रभावित हुए ही हैं और भी कितने मुनियों तथा साधकों को भी यहाँ से दिशा मिली है। ऐसे ही परम पुनीत स्थानों में सम्मेदाचल, पावापुर का भी उल्लेखनीय स्थान है । ऐसे अनेक जिन भवन हैं जो मोक्षसाध्य के हेतुभूत हैं । चतुर्विध देव तक सपरिवार यहाँ इन जिनालयों में आते हैं। आचार्यश्री इन और ऐसे अन्य जिनालयों के प्रति सश्रद्ध नतशिर हैं।
सातवीं भक्ति है-चैत्यभक्ति। आचार्यश्री ने बताया है कि जिनवर के चैत्य प्रणम्य हैं। ये किसी द्वारा निर्मित नहीं हैं अपितु स्वयम् बने हैं। इनकी संख्या अनगिन है । औरों के साथ आचार्यश्री की भी कामना है कि वे भी उन सब चैत्यों का भरतखण्ड में रहकर भी अर्चन-वन्दन-पूजन करते रहें, ताकि वीर-मरण हो, जिनपद की प्राप्ति हो और सामने सन्मतिलाभ हो।
आठवीं भक्ति है-शान्तिभक्ति। इस भक्ति में दुःख-दग्ध धरती पर जहाँ कषाय का भानु निरन्तर आग उगल रहा हो, किसे शान्ति अभीष्ट न होगी ? तीर्थंकर शान्तिनाथ शीतल-छायायुक्त वह वट वृक्ष हैं जहाँ अविश्रान्त संसारी को विश्रान्ति मिलती है। इसीलिए आचार्यश्री कहते हैं सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ को दृष्टिगत कर :
"शान्तिनाथ हो विश्वशान्ति हो भाँति-भाँति की भ्रान्ति हरो ।
प्रणाम ये स्वीकार करो लो किसी भाँति मुझ कान्ति भरो ॥" इस संकलन की अन्तिम भक्ति है- पंच महागुरुभक्ति। इसमें अन्तत: पंच परमेष्ठियों के प्रति उनके गुणगणों और अप्रतिम वैभव का स्मरण करते हुए आचार्यश्री कामना करते हैं :
“कष्ट दूर हो, कर्मचूर हो, बोधिलाभ हो, सद्गति हो ।
वीरमरण हो, जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ॥" इन विविधविध भक्तियों के अतिरिक्त आपके द्वारा आचार्य अकलंकदेव कृत 'स्वरूप-सम्बोधन' (१९९६) ग्रन्थ का भी सरस अनुवाद किया गया है, जो अद्यावधि अप्रकाशित है । इसमें जिनदर्शन सम्मत सर्वविध चिन्तन का सार आ गया है-विशेषकर आत्मचिन्तन का।
हाइकू (१९९६) : आचार्यश्री ने कुछ क्षणिकाएँ भी लिखी हैं जो जापानी ‘हाइकू' की छाया लिए हुए हैं। यह विधा लघुकाय होकर गहरी व्यंजना करती है । इसकी महत्ता इसकी व्यंजनक्षमता के अतिरेक में है । यथा :
“घनी निशा में/माथा भयभीत हो/आस्था आस्था है।" आस्था, आस्था है, वह डिगना नहीं जानती । अभी तक आचार्यश्री के द्वारा ढाई सौ से अधिक हाइकू लिखे जा चुके हैं। इस प्रकार आचार्यश्री की निर्झरिणी लोकहितार्थ निरन्तर सक्रिय है । मुनिराज श्री विद्यासागरजी के प्रति नमनांजलि ।