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________________ 522 :: मूकमाटी-मीमांसा परिणत होती है । इस तरह हर गर्भ में तीर्थंकर मोती बनकर नहीं आते। उसके लिए आवश्यक है कि माता-पिता की निर्मल भावना हो । वे उत्तम संस्कार डालें । ऐसे पुत्ररत्न का शरीर शान्ति के परमाणुओं से निर्मित होता है। प्रत्येक क्रिया संस्कार के साथ चलती है। भारतीय संस्कृति में संस्कार का बड़ा महत्त्व है । संस्कार से ही अन्तर्हित दिव्यत्व का उन्मेष होता है । पता नहीं कौन से गर्भस्थ शिशु में, किस तरह की ऊर्ध्वमुखी सम्भावना अन्तर्हित हो, अत: उसे अन्यथा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। जन्म-मरण से परे : इस प्रवचन में कहा गया है कि सन्तों के वचन को गाँठ में बाँध लेना चाहिए। वे बड़े काम के होते हैं। मोक्षमार्ग में भी उनके वचन काम में आते हैं। आचार्यों ने कहा है कि मोक्षमार्ग में चार बातों का ध्यान रखना चाहिए- एक, जन्मत: यथाजात निर्वस्त्र रूप रखना; दूसरे, आचार्य के वचनों का पालन; तीसरे, विनय, नम्रता और अभिमान का अभाव तथा चौथे, शास्त्रानुशीलन । पुत्र-मृत्यु के कारण विक्षिप्त वृद्धा के दृष्टान्त से सन्त ने प्रतिपादित किया कि जन्म-मरण अविच्छेद्य हैं । उसे कोई टाल नहीं सकता । व्यवहार में भी कहा जाता है कि सूर्योदय होता है और सूर्यास्त होता है । सूर्य जन्म लेता है, यह कोई नहीं कहता । पुद्गलों के बिखर जाने को लोग आत्मा का मरण कह देते हैं। केवलज्ञान के अभाव में संसारी जन्म-मरण की गलत धारणा लेकर भटकता रहता है। यही अज्ञान है । आत्मा जन्म-मरण से परे है । यही समझ इस जन्मकल्याणक की उपलब्धि है। समत्व की साधना : इसमें यह बताया गया है कि इस दीक्षाकल्याणक समारोह का ऐसा प्रभाव पड़ रहा है कि मुकुट उतर रहा है, सिंहासन त्यागा जा रहा है - कैसा विनय और वैराग्य का आचरण है। श्रमण की शोभा राग से नहीं, विराग से है। दैगम्बरी दीक्षा ही निष्कलंक पथ है । भगवान् वृषभनाथ स्वयम् भी अनुशासित थे, समता सम्पन्न थे और अपनी प्रजा को भी उन्होंने अनुशासित रखा था। भरत चक्रवर्ती भी उनकी आज्ञा का पालन करते हुए मुक्त हुए। धर्मदेशना : इसमें आचार्यश्री ने कहा कि कुमार नेमिनाथ किसी अन्य संकल्प से रथारूढ़ होकर जा रहे थे, पर बद्ध पशुओं का करुणक्रन्दन निमित्त बन गया। वे रथ छोड़कर उतर पड़े। अब संकल्प में परिवर्तन आ गया और रास्ता बदल गया । अब संसार का बन्धन नहीं, जीवन का लक्ष्य बन्धनमुक्त होना हो गया, पर हम हैं कि सब देखते-सुनते हैं किन्तु पथ नहीं बदलते । दया ने ही पथ परिवर्तन कराया । यदि दया है तो जीवन धर्ममय है । दया धर्म - अहिंसा धर्म एक वृक्ष की तरह है। शेष सत्य, अचौर्य आदि चार उसी की शाखाएँ हैं । परिग्रह तत्त्वत: मूर्छा का नाम है । भगवान् ऋषभदेव ने हमें यही उपदेश दिया है कि प्रत्येक आत्मा आत्मकल्याण के लिए स्वतन्त्र है । हमें दयावान् होकर परस्पर उपकार की भावना से अन्तस् को रंजित करना चाहिए। निष्ठा से प्रतिष्ठा : इसमें आचार्यश्री ने सागर, मध्यप्रदेश में सानन्द सम्पन्न पंच कल्याणक एवं त्रय गजरथ महोत्सव के अवसर पर कहा कि ऐसे कार्य सभी के सहयोग से सम्पन्न होते हैं। धर्म के प्रति आस्था जब धीरेधीरे निष्ठा की ओर बढ़ती है, प्रगाढ़ होती है, तभी प्रतिष्ठा हो पाती है और जब प्रतिष्ठा की ओर दृष्टिपात नहीं करते हुए आगे बढ़ते हैं तो संस्था बन जाती है । तभी सारी व्यवस्था ठीक हो पाती है। फिर तो प्रकृति भी सहयोग देने लगती है। सामूहिक पुण्य के माध्यम से आज भी धर्म के ऐसे महान् आयोजन सानन्द सम्पन्न हो रहे हैं। ऐसे अवसर पर महान् आत्माओं का स्मरण करना चाहिए और उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए। भक्ति-पाठ 'समग्र : आचार्य विद्यासागर' के चार खण्डों में प्रकाशित रचनाओं के अतिरिक्त आचार्यश्री विद्यासागरजी ने साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं पर कृपा कर उत्थान शमनान्त पठनीय, मननीय एवं प्रेरणास्पद होने से स्मरणीय, फलत: नितान्त उपादेय नौ भक्तियों का अनुवाद हिन्दी भाषा में कर दिया है। इससे संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ उपासक जन भी अर्थावबोधपूर्वक अपनी चेतना को सुस्नात और सिक्त कर सकेंगे। उपासक इन्हीं के पाठारम्भ से अपनी दिनचर्या
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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