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मूकमाटी-मीमांसा :: lv
अंगीरस निरूपण अर्थात् भाव - योजना
उपर्युक्त विवेचन से सुस्पष्ट है कि आलोच्य कृति में अंगीरस शान्त है। पारम्परिक साँचे के लक्षण में भी अंगीरस के रूप में 'शान्त' का विधान है। इसका स्थायी भाव 'समस्ततृष्णाक्षयसुखात्मा' शम है । यह लक्षण अभिनव गुप्त का है । पण्डितराज का कहना है : " नित्यानित्यवस्तुविचारजन्मा विषयविरागाख्यो निर्वेद : ” - तत्त्वज्ञानजन्य निर्वेद ही शान्त रस का स्थायी भाव है- ( नाट्यशास्त्र - अभिनव भारती) अर्थात् आत्मस्वरूप सुख नित्य, निरतिशय और स्वात्मस्वरूप है जबकि विषय - आत्मेर-सुख अनित्य, सातिशय और पर सापेक्ष है । इस प्रकार के दृढ़ विचार से उत्पन्न विषयविराग ही निर्वेद है और यह शान्त का स्थायीभाव है । वितृष्णीभावरूप चितवृत्ति विशेष ही निर्वेद है। निर्वेद संचारी भी है और स्थायी भी । पहला क्षणिक है और दूसरा स्थिर - " वासनारूपाणाममीषां मुहर्मुहरभिव्यक्तिरेव स्थिरपदार्थत्वात्” (रसगंगाधर, प्र.आ.) क्षणिक निर्वेद गृहकलह आदि से उत्पन्न होता है पर दूसरा विचार करते-करते स्थिर प्रकृति का पैदा होता है । पहला लक्षण विध्यात्मक है और दूसरा निषेधात्मक । पहले में ' तृष्णाक्षयसुखात्मा' माना गया है, दूसरे में ' वितृष्णीभाव' ही कहा गया है। एक विवाद यह भी है कि यदि स्थायी भाव चित्तवृत्ति विशेषरूप ही है और शान्त उसी का पुष्टरूप है तो वह निखालिस आत्मस्वरूपापत्ति स्वरूप नहीं होगा, जैसा कि धनिक ने 'दशरूपक' की टीका में कहा है। श्रुति भी उसे नेति-नेति के अन्यापोह रूप से ही कहती है । इस तरह के शान्त का आस्वाद तो मुक्त पुरुष ही मोक्षावस्था में कर सकते हैं, न कि सहृदयमात्र । इसलिए दूसरे लोगों का पक्ष है कि वहाँ तक पहुँचाने वाले उपाय का आस्वाद ही शान्त रस कहा जाय । यह उपाय अभावात्मक नहीं है, रस सुख स्वरूप है, अत: उसका स्वरूप 'सुखात्मा' ही होना चाहिए, विध्यात्मक होना चाहिए। काव्यास्वाद के रूप का शान्त और मोक्षावस्था के शान्त में उपाय और उपेय का अन्तर मानकर चलना चाहिए। इस पर यह भी समस्या उठ खड़ी होती है कि जैसे और रसों का स्थायी भाव इदानीन्तन और तदानीन्तन वासना के रूप में सहृदयों के हृदय में पहले से ही विद्यमान ( जीवनानुभव क्रम में ) रहते हैं, क्या उसी प्रकार वितृष्णीभाव भी रहता है ? समस्ततृष्णाक्षयसुखात्मा शम भी रहता है ? हाँ, सांसारिक विषयों की विरसता वर्णित हो तो सहृदय पाठक की चित्तवृत्ति बनती है । अस्तु ।
प्रस्तुत काव्य में नित्यानित्यविचारजन्मा विषयवैराग्य घट में है। उसी से वह स्वरूप - सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न आरम्भ करता है और समस्त काव्य में उसका उपाय - तप-वर्णित है, जो मोक्षदशा में उपेय पर्यवसायी है । पार्यन्तिक दशा की अनुभूति मुक्त को होगी, आन्तरालिक दशा की सहृदय को । यहाँ आलम्बन है अनित्य विषयसुख ।
प्रस्थान में जगत् अनित्य नहीं है, अतः वेदान्तियों की भाँति वह आलम्बन नहीं हो सकता । शास्त्रश्रवण, तपोवन, तापस दर्शन आदि उद्दीपन हैं। विषय सुख में अरुचि, शत्रु-मित्र में उदासीनता, निश्चेष्टता, नासाग्रदृष्टि आदि अनुभाव हैं । ग्लानि, क्षय, मोह, विषाद, चिन्ता, उत्सुकता, दीनता और जड़ता आदि व्यभिचारी भाव हैं । 'अभिनवभारती' कार का पक्ष है कि जब तीनों पुरुषार्थों के अनुरूप चित्तवृत्ति होती है तब महाभारतादि में अंगीरूप से प्रतिष्ठित शान्त के अनुरूप मोक्ष नामक चतुर्थ पुरुषार्थोपयोगी चित्तवृत्ति भी होती है, होनी चाहिए। उनकी दृष्टि में 'शम' और 'वैराग्य' में भेद है । तत्त्वज्ञानजन्य निर्वेद या प्रत्येक स्थायी, या समुदित स्थायी शान्त का स्थायी नहीं है विपरीत इसके तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार को ही शान्तरस का स्थायीभाव माना जाना चाहिए । वैराग्य और संसार से पलायन आदि उस शान्त रस के विभाव हैं। मोक्षशास्त्र का विचार आदि उसके अनुभाव हैं । निर्वेद, धृति आदि व्यभिचारी भाव हैं । भक्ति और श्रद्धा भी इसी के अंग हैं। अभिनव गुप्त ने शान्त रस का विरोध करने वालों के पक्ष में अनेक युक्तियाँ हैं और फिर उनका खण्डन कर उसका सांगोपांग विवेचन किया है।
अभिनव
गुप्त ने 'लोचन' और 'अभिनव भारती' में शान्त रस पर जमकर विचार किया है। विवाद न केवल