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520 :: मूकमाटी-मीमांसा
और शक्तिसम्पन्न था। इसीलिए उन्हें कहीं-कहीं बजरंगबली भी कहा जाता है । प्रचलित वानर रूप उनका वास्तविक रूप नहीं है । वे तो सर्वगुण सम्पन्न और सुन्दर शरीर को धारण करने वाले मोक्षगामी परम पुरुष थे । प्रवचन प्रमेय (१९८६, केसली, सागर, मध्यप्रदेश)
इस उपखण्ड में दस प्रवचन हैं। प्रसंग पंच कल्याणक का है । इस प्रसंग पर पहले भी प्रवचन हो चुके हैं पर आचार्यश्री के पास कहने को बहुत कुछ है । वे जंगम शास्त्र और मूर्तिमान् आचार हैं। प्रथम प्रवचन : उन्होंने बताया कि प्रथम दिन का यह आयोजन जिन-पथ पर चलने के लिए है, राग के समर्थन के लिए नहीं, वीतरागता के समर्थन के लिए है । जिनवाणी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार भागों में बाँटी गई है। प्रथमानुयोग बोधि और समाधि को देने वाला है । चरणानुयोग हमें चलना-फिरना सिखाता है । करणानुयोग में भौगोलिक स्थितियों का वर्णन है । द्रव्यानुयोग में हेय एवं उपादेय क्या है, इस पर गम्भीर चिन्तन है। इसमें पूरा जैन दर्शन विवेचित है । सभी तत्त्वों का निर्वचन है । इस सन्दर्भ में आगम और परमागम दो नाम आते हैं। आगम में भी दो भेद हैं- दर्शन और सिद्धान्त । दर्शन में जैन तत्त्व का और सिद्धान्त में जीव सिद्धान्त तथा कर्म सिद्धान्त का विवेचन है । इस प्रकार इसमें जैन दर्शन और सिद्धान्त का गूढ़ मर्म समझाया गया है।
द्वितीय प्रवचन : इसमें मोक्षमार्ग पर पुष्कल प्रकाश विकीर्ण किया गया है । मोक्षमार्ग ध्यान के अलावा और कुछ नहीं। वह भी उपभोग की एकाग्र दशा का नाम है । रत्नत्रय तो है ही।
तृतीय प्रवचन : इसमें आयुकर्म पर मननीय सामग्री है । अष्टविध कर्मों में आयुकर्म को छोड़कर शेष सात की निर्जरा की जाती है। कर्म के सम्बन्ध में इस प्रवचन में पर्याप्त मन्थन किया गया है । आयुकर्म की निर्जरा पर शीघ्रता नहीं होनी चाहिए। वह हमारा प्राण है । चतुर्थ प्रवचन : इसमें जन्म कल्याणक पर विचार करते हुए आचार्यश्री ने बताया है कि भगवान् का जन्म नहीं हुआ करता, वे तो जन्म पर विजय करने से बनते हैं। जन्म उनका होता है जो भगवान् बनने वाले होते हैं। इसी अपेक्षा से जन्म-कल्याणक मनाया जाता है। जानना चाहिए कि जन्म है क्या ? अठारह दोषों में एक जन्म और मरण भी गिना जाता है, पर जिस मरण के बाद जन्म नहीं होता वह मरण पूज्य हो जाता है । वैसे जन्म एक महादोष है पर भगवान् की जन्म जयन्ती इसलिए मनाई जाती है कि वे तीर्थंकर होने वाले हैं। पंचम प्रवचन : इसमें जन्म कल्याणक के बाद होने वाले दीक्षा कल्याणक का सन्दर्भ विचारार्थ आता है । इसमें हम देखते हैं कि किस प्रकार सांसारिक समस्त सुख का त्याग कर भवन से वन की ओर प्रस्थान होता है। इस त्याग से दर्शक श्रद्धालुओं में भी त्याग की भावना जन्म ले सकती है। मार्ग दो हैं- एक संसारमार्ग और दूसरा मोक्षमार्ग। इस दृश्य से संसार मार्ग से हटकर मोक्षमार्ग की ओर जाने की प्रेरणा मिलती है । जो भी मुक्ति चाहता हो उसे श्रामण्य स्वीकार करना होगा । श्रमण बनने से पूर्व किस-किस से पूछना है-'प्रवचनसार' में इसका उत्तम वर्णन है। सबसे पहले माँ के पास जाता है और कहता है : “तू मेरी माँ नहीं है, मेरी माँ तो शुद्ध चैतन्य आत्मा है । आप तो इस जड़मय शरीर की माँ हो । इसी प्रकार पिता, पत्नी आदि से भी व्यवहार की दृष्टि से पूछता है और अन्ततः श्रामण्य स्वीकार कर लेता है । राग से वैराग्य और वैराग्य से अन्तर्मुखता । यह यात्रा परीषह और उपसर्गों से गुज़रती है। जो इस रास्ते आत्मविश्वास के साथ चलता है उसे संवर और निर्जरा भी होती है। ऐसे श्रामण्य को पुन: पुन: नमन । चौथे दिन के प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा कि जन्मकल्याणक और दीक्षाकल्याणक के बाद आता है तपकल्याणक । तपोलीन को ज्ञानोपलब्धि होती है । मुनिराज के पास किसी प्रकार की ग्रन्थी/परिग्रह नहीं रहता। कारण, शुद्धोपयोग ही उनकी चर्या है । दिगम्बर चर्या बड़ी कठिन है। यही प्रव्रज्या है, यही श्रामण्य है, यही जिनत्व है, यही चैत्य और चैत्यालय है । मतलब यही सर्वस्व है । अष्टम प्रवचन में धर्म-पुरुषार्थ