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516 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रवचन प्रदीप (१९८४)
इस उपखण्ड में जो वक्तव्य संकलित हैं, वे हैं -समाधिदिवस, रक्षाबन्धन, दर्शन-प्रदर्शन, व्यामोह की पराकाष्ठा, आदर्श सम्बन्ध, आत्मानुशासन, अन्तिम समाधान, ज्ञान और अनुभूति, समीचीन साधना, मानवता । समाधिदिवस : आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज के प्रति इस प्रवचन में आचार्यश्री ने हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए श्रीगुरु की महिमा का वर्णन किया है । उन्होंने अज्ञानतिमिरान्ध शिष्य के ज्ञानचक्षु को ज्ञानाञ्जनशलाका से उद्घाटित करने वाले श्रीगुरु की तहेदिल से वन्दना की है। श्रीगुरु वह कुम्हार है जो तल से सहारा भी देता है और ऊपर से चोट देकर उसका निर्माण भी करता है । ऐसा श्रीगुरु क्यों न वन्दनीय हो जो शिष्य को गोविन्द ही बना देता है। रक्षाबन्धन : यह एक ऐसे पर्व का दिन है जो बन्धन का होने पर भी पर्व माना जा रहा है और इसका कारण है उसकी तह में प्रेम की संस्थिति । यह बन्धन रक्षा का प्रतीक है, जो नाम से बन्धन होकर भी मुक्ति में सहायक है । इस बन्धन से वात्सल्य झरता है। दर्शन-प्रदर्शन : भगवान् महावीर की जयन्ती पर दिए गए इस प्रवचन में आचार्यश्री ने बताया है कि उनकी उपासना से उपासक में महावीर बनने की ललक पैदा होती है। उसका गुणगान इसी ललक की अभिव्यक्ति है । उनका दर्शन-प्रदर्शन नहीं है । दर्शन स्व का होता है, प्रदर्शन दूसरों के लिए दिखावा होता है। उन्होंने स्वयं दिखावा नहीं किया, स्वरूप की अपरोक्षानुभूति की। उनका दर्शन निराकुलता का दर्शन है। व्यामोह की पराकाष्ठा :
_ "मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।" समस्त दुःख का मूल है-मोह, मैं और मेरेपन का भाव । मोह के वशीभूत होकर संसारी प्राणी शरीर और पर-पदार्थों को भी अपना ही समझने लगता है, ममता की डाँट में वह अपने को कस लेता है। शरीर आदि के द्वारा सम्पादित क्रियाओं के मूल में अपने (मैं) को ही समझता है । जिस अहंता-ममता के बन्धन में वह अपने को बाँधता है, मरणोपरान्त वह सब यहीं धरा रह जाता है । दोनों एक-दूसरे को छोड़ देते हैं, पर यह मोह है जो आजीवन जीव को दबोचे रहता है और स्वभाव से च्युत कर देता है, आत्मा पर भारीपन लाद देता है । मोक्षमार्ग पर चलने के लिए हलका होना अपेक्षित है। एतदर्थ जागरूक रहकर अहंता-ममता का त्याग ही श्रेयो विधायक है। आदर्श सम्बन्ध : यह आत्म तत्त्व पानी की तरह चारों गतियों में बह रहा है । उसे नियन्त्रित करना और ऊर्ध्वगामी बनाना बड़ा कठिन कार्य है। उपयोग के प्रवाह को कैसे बाँधा जाय ? इतने सूक्ष्म परिणमन वाले परिवर्तनशील उपयोग को बाँधना साधना के बिना असम्भव है। कार्य वह कठिन होता है जो पराश्रित होता है । स्वाश्रित कार्य आसानी से सध जाता है, पर एतदर्थ अपनी शक्ति को जाग्रत करना पड़ता है - "नायमात्माबलहीनेन लभ्यः।" प्रत्येक सम्बन्ध का उद्देश्य ऐसी शक्ति का निर्माण करना है जो विश्व को प्रकाश दे और आदर्श प्रस्तुत कर सके । भारत 'भा' में 'रत' है। वह जो बन्धन या सम्बन्ध चुनता है, उसमें एक अनुशासन होता है । सब कुछ भूल जाना, पर अपने आप को नहीं भूलना, इसी को कहते हैं दाम्पत्य बन्धन । अब दम्पती हो गए । अपनी अनन्त इच्छाओं का दमन कर लिया, उनको सीमित कर लिया । वासना परिचालित निर्नियन्त्रित व्यभिचारी सम्बन्ध अनादर्श सम्बन्ध है जो उत्थान नहीं, पतन की ओर ले जाता है । गृहस्थ को चाहिए कि वह गृहस्थाश्रम को भी आदर्श बनाए, तदनन्तर वानप्रस्थ और फिर संन्यास धारण करे। आत्मानुशासन : कबीर ने अपना अनुभव सुनाया कि चक्की के दो पाटों की तरह संसार की चक्की चलती रहती है,