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मूकमाटी-मीमांसा :: 511 गुरुवर्य शान्तिसागर के पास चला गया और उनसे दीक्षा ग्रहण 'वीरसागर' अन्वर्थ नाम ग्रहण किया । मुनि सुलभ चर्या ग्रहण की, अत: लोगों के बीच बड़े परमपूज्य हुए । श्रीगुरु से सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्राप्त हो गया था। वे स्वाध्याय लीन रहकर निरन्तर दोषप्रक्षालन करते रहते थे। आपके प्रथम शिष्य थे योगी शिवसागरजी और दूसरे शिष्य थे सिद्धमूर्ति जयसागरजी । वैसे तो श्रुतसागर प्रभृति भी शिष्यगण थे। अन्तत: आपने सल्लेखनामरण की भावना से समाधि ली। वे जहाँ भी गए हों, आचार्यश्री ज्ञानसागरजी का प्रथम शिष्य विद्यासागर अपने स्तुति-सरोज वहाँ भेज रहा है। ३. आचार्यश्री १०८ शिवसागरजी महाराज के पावन चरणारविन्द में हार्दिक श्रद्धांजलि (१९७१)
औरंगाबाद के पास एक छोटी सी जगह है-अड़पुर । वहाँ न्यायमार्गाधिरूढ़ धर्मात्मा लोग हैं। उनमें श्री नेमीचन्द जी राँवका की पत्नी श्रीमती दगड़ाबाईजी मृगाक्षी थीं। उनका बच्चा हीरा से भी अधिक रुचिवाला हीरालाल था। इनकी जवानी का सौन्दर्य देखकर सारी कुमारियाँ कामपीड़ित हो उठती थीं। माँ ने युवावस्था देख विवाह का प्रस्ताव रखा, पर उन्होंने कहा कि विवाह करना ही चाहती हो तो मेरा विवाह मोक्षरूपी रमा से कर दो । माता का नेत्र अश्रुप्लावित हो उठा । पर उन्होंने समझाया कि इस भवविपिन में मेरा-तेरा कौन ? मुझे तो दीक्षा लेकर श्रमण बनना है, धर्म का स्वाद लेना है । मैं शम-दम का पालन करूँगा और आत्मा को पहचानूँगा । फिर तो विरक्त हो, स्वभाव में प्रतिष्ठित हो गए। आचार्यश्री अपनी श्रद्धांजलि उन्हें भी दे रहे हैं। ४. आचार्यश्री १०८ ज्ञानसागरजी महाराज के पावन चरणारविन्द में हार्दिक श्रद्धांजलि (१९७३)
"जय हो ज्ञानसागर ऋषिराज, तुमने मुझे सफल बनाया आज ।
और इक बार करो उपकार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार" ॥२०॥ इस खण्ड के अन्त में कुछ अन्य भक्ति गीत (१९७१) भी संकलित कर दिए गए हैं, जिनके शीर्षक हैं-'अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा, परभाव त्याग तू बन शीघ्र दिगम्बर,' 'मोक्षललना को जिया ! कब बरेगा?, भटकन तब तक भव में जारी 'बनना चाहता यदि शिवांगना पति, 'चेतन निज को जान जरा' तथा 'समाकित लाभ'। इन सबके साथ एक रचना है, 'My self जिसमें उन्होंने बताया है कि उनकी प्रकृति नि:संगता की है । मैं अपना शिक्षक स्वयं हूँ । इन गीतों में भी मुनिसुलभ भाव और विचार की तरंगें लहरा रही हैं, इन्हें पढ़ते ही बनता है, मन भींग-भींग उठता है।
'समग्र : आचार्य विद्यासागर' (चार) यह खण्ड गद्य शैली में निबद्ध है । इस खण्ड में कुल नौ उपखण्ड हैं - प्रवचनामृत, गुरुवाणी, प्रवचन पारिजात, प्रवचन पंचामृत, प्रवचन प्रदीप, प्रवचन पर्व, पावन प्रवचन, प्रवचन प्रमेय तथा प्रवचनिका। प्रवचनामृत (१९७५)
इस उपखण्ड में फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश में प्रदत्त कुल सत्रह प्रवचन निम्नलिखित शीर्षकों से संग्रहीत हैं - समीचीन धर्म, निर्मल दृष्टि, विनयावनति, सुशीलता, निरन्तर ज्ञानोपयोग, संवेग, त्यागवृत्ति, सत्-तप, साधुसमाधि-सुधा-साधन, वैयावृत्य, अर्हत् भक्ति, आचार्य भक्ति, शिक्षा-गुरु स्तुति, भगवद्भारती भक्ति, विमल आवश्यक, धर्म-प्रभावना तथा वात्सल्य । जैन शास्त्र को हृदयंगम करने में ये प्रवचन नितान्त मनोरम और उपादेय हैं।
आचार्य समन्तभद्र मानते हैं कि समीचीन धर्म कर्मों का निर्मूलन करता है । और प्राणिमात्र को दुःखों से