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________________ 478 :: मूकमाटी-मीमांसा इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है।" (पृ. ४८६) 0 "जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।" (पृ. २६७) __"इसे उपधि की आवश्यकता है/उपाधि की नहीं, माँ इसे समधी-समाधि मिले, बस ! अवधि-प्रमादी नहीं।/उपधि यानी उपकरण-उपकारक है ना!/उपाधि यानी परिग्रह-अपकारक है ना!" (पृ. ८६) इन पंक्तियों के काव्यों के गूढार्थ को समझने के लिए जैन धर्म-दर्शन के सम्यक् ज्ञान की न्यूनाधिक आवश्यकता होगी। इसलिए यह कृति वर्ग विशेष के लिए पठनीय हो सकती है, जन के लिए नहीं। यही इस कृति की विशेषता भी है, यही सीमा भी। परिग्रह अपकारक है, यह बात आखिर जैन धर्म का महत् दर्शन सदियों से कहता आया है परन्तु जैन धर्मावलम्बियों के आचरण से वह सिरे से नदारद क्यों है ? यदि कोई सन्त धर्म में रहते हुए,परिव्राजक जीवन व्यतीत करते हुए भी काव्य में प्रवृत्त होता है तो उससे काव्यात्मक-विद्रोह की अपेक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिए? यह कृति इस अपेक्षा की पूर्ति नहीं करती। [दैनिक जागरण, भोपाल, मध्यप्रदेश, ३० अक्टूबर, १९९५] पृ. १८ करवटें बदलदी-... उपयोगकी बात... +
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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