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432 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है 'मूकमाटी'।"
___ आज के अर्थ प्रधान इस यग में सभी अर्थोपार्जन की प्रतिस्पर्धा में निरत हैं। आपन पेट हाह, मैं न दे हौं काह' वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं किन्तु इससे समाज का आर्थिक सन्तुलन बिगड़कर लोगों में विकृत मनोवृत्तियाँ जन्म लेती रहती हैं। कवि ने इसकी व्यंजना इन शब्दों में की है :
"अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ.१९२) समाज की पतनोन्मुख स्थिति से सन्त चिन्तित हैं। ऐसी स्थिति में समाज को दिशाबोध देना सन्तों का कर्तव्य होता है। वे उसे सन्मार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करते हैं। अत: उसे उदबोधन देते हैं।
"अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो! और/लोभ के वशीभूत हो/अंधाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो/अन्यथा,
धनहीनों में/चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं।" (पृ. ४६७-४६८) सन्त स्वयं अपरिग्रही हैं, अत: त्याग का उपदेश देने में उनकी वाणी सक्षम है, क्योंकि वे स्वयं उस कसौटी पर खरे उतरे हैं। उनमें कोरा वाक् चातुर्य नहीं है, क्योंकि उनकी मान्यता है कि कथनी-करनी में अन्तर होने से उपहास का पात्र बनना पड़ेगा। कवि के ही शब्दों में :
“परीक्षक बनने से पूर्व/परीक्षा में पास होना अनिवार्य है,
अन्यथा/उपहास का पात्र बनेगा वह ।" (पृ. ३०३) 'मूकमाटी' का रचनाकार मात्र कवि ही नहीं, एक धर्माचार्य भी है। प्रेम, दया और करुणा की भावना को वह देश में ही नहीं सीमित रखना चाहते, बल्कि वे चाहते हैं कि विश्व के सभी प्राणी परस्पर वैर भाव भूलकर मैत्रीभाव स्थापित करें । तभी तो पड़ोसी देश के राष्ट्राध्यक्ष (पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक) को उद्बोधन देते हैं :
"परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में/बहुत हुआ, वह गलत हुआ। मिटाने-मिटने को क्यों तुले हो/...जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ !/सदय बनो!/अदय पर दया करो अभय बनो !/सभय पर किया करो अभय की/अमृत-मय वृष्टि
सदा सदा सदाशय दृष्टि/रे जिया, समष्टि जिया करो!" (पृ.१४९) स्वार्थी, दम्भी और लोभी मनुष्य की संकीर्ण भावना का जब तक लोप नहीं होगा तब तक स्वस्थ समाज नहीं बन सकता । सन्त कवि ने समाजवाद को किस प्रकार परिभाषित किया है, देखिए :
"समाज का अर्थ होता है समूह/और/समूह यानी सम-समीचीन ऊह-विचार है/जो सदाचार की नींव है। कुल मिला कर अर्थ यह हुआ कि/प्रचार-प्रसार से दूर