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________________ 430 :: मूकमाटी-मीमांसा इन सब मापदण्डों पर खरे उतरने वाले उपदेष्टा सन्त आचार्य विद्यासागर द्वारा रचित 'मूकमाटी' एक आध्यात्मिक काव्यकृति है जिसको महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त हो, यह भी इस निस्पृह सन्त की भावना नहीं रही । उनको तो माटी को आत्मा का रूपक बनाकर आत्म विकास की बात कहनी थी, मानव समाज को, जो एक लम्बी कविता के रूप में उन्होंने कह दी। जब कभी कोई प्रसंग चल पड़ता है तो फिर अनेक बातें इधर-उधर की भी होती हैं। पेड़ का तना ऊर्ध्वगामी, विकसित होता है, किन्तु आजू-बाजू कई शाखाएँ फूटकर उसे सघनता प्रदान करती हैं, अन्यथा पेड़ ताड़ के झाड़ की तरह लम्बवत् विकास को प्राप्त होता । वह राहगीर को छाया प्रदान करने तक में असमर्थ होता है। किन्तु : "...जो/हरा-भरा तरु है/फूलों-फलों-दलों को ले पथिक की प्रतीक्षा में खड़ा है/उससे थोड़ी-सी छाँव की मैंगनी/क्या हँसी का कारण नहीं है ?" (पृ. ४७५) पत्रों, पुष्पों और फलों से लदा पेड़ हमारी क्षुधा, तृषा मिटाने हेतु मधुर रसीले फल प्रदान करता है । फूलपत्तियाँ जीवनदायी औषधियाँ प्रदान करती हैं तो पेड़ राही को अयाचित छाया प्रदान कर क्लान्ति का हरण कर विश्रान्ति देता है। विशाल वृक्ष की तरह सन्त कवि की यह महान् कृति भी बहु उपयोगी है। वैसे तो कृतिकार का लक्ष्य मानव समाज को आत्म विकास की प्रक्रिया बताना, आत्मा को अनन्त सुख प्राप्त करने हेतु प्रेरित करना है । एक सजग राहगीर की भाँति अपने इर्द-गिर्द देखते हुए, चौकन्ना रहकर कृतिकार यदि कहीं देखता है तो वह चुप्पी नहीं साध लेता। व्यक्ति, समाज, कला, विज्ञान, दर्शन, राजनीति, अर्थनीति, विदेशनीति आदि कहाँ पर कवि की दृष्टि नहीं गई। उसे कहीं खोट नज़र आई है तो उसने तुरन्त संकेत किया है- किन्तु यदि विषय सामान्य न होकर गम्भीर है तो मीठे या तीखे व्यंग्य भी किए हैं और यदि देखा कि भाँग खाकर सोए उस मानव पर ये उपाय सारहीन सिद्ध होंगे तो उसने ऐसी तीखी फटकार भी सुनाई है जो उसकी चेतना को एक बार झकझोर कर रख दें: "धरती के आराधक धूर्तो,/कहाँ जाओगे अब ? जाओ, धरती में जा छुप जाओ""/उससे भी''नीचे ! पातको, पाताल में जाओ!/पाखण्ड प्रमुखो! मुख मत दिखाओ हमें।" (पृ. ४४७) ब्रह्मा द्वारा सृष्टि सृजन, विष्णु द्वारा पालन और महेश द्वारा संहार होने वाली मान्यता का खण्डन करने वाले जैन दर्शन को लोग भ्रमवश नास्तिक की संज्ञा दे देते हैं। इस भ्रम का निवारण करना, निमित्त-उपादान की आगमिक मीमांसा करना इत्यादि उद्देश्य रखकर 'मूकमाटी' की रचना हुई है। आचार्य विद्यासागर की प्रकाशित सभी रचनाओं में 'मूकमाटी' उनकी अत्यन्त प्रौढ़ एवं उच्च कोटि की साहित्यिक कृति है। 'माटी' यद्यपि मूक है तथापि उसकी अनुगूंज हमारे 'बन्द कपाटों को खोलकर हत्तन्त्री' को झंकृत कर देती है। आज भौतिकवाद में जकड़े हुए मानव को, जो कि विषय-कषाय में आकण्ठ निमग्न है, सन्मार्ग दिखाना, कुपथगामियों को शुभ संस्कार देकर सुमार्ग पर आरूढ़ करना तथा दुष्कर्मों में रत एवं छल-छद्मों में निरत मानवों को कर्म बन्धनों से छुटकारा पाने की रीति बताना कृतिकार के उद्देश्य हैं । वीतराग श्रमण संस्कृति का संरक्षण एवं उसके समर्थन का प्रयास भी कृतिकार के महत् उद्देश्यों में निहित है । कवि ने यह भी चाहा है कि धर्म, समाज एवं राजनीति में जो दोष आ गए हैं उन दोषों का परिहार हो । परस्पर विश्वास एवं प्रेम उत्पन्न हो तथा सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापित हो, इस हेतु जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों को अपनाकर कृतिकार ने इन्हें विश्वव्यापी रूप प्रदान किया है । अहिंसा का पालन करके ही आज की इस आशाओं की बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा पर अंकुश लगाकर कई अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं का हल घोजा जा सकता है। इतना ही नहीं आचार्यश्री ने तो उसे देवत्व ही प्रदान कर दिया :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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