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मूकमाटी-मीमांसा :: xli
जानी चाहिए । अनेक समीक्षकों ने इसे जैसे-तैसे 'काव्य' तो मान लिया है, परन्तु 'महाकाव्य' नहीं माना है । निश्चय ही उन समीक्षकों के मानस पर जो मानदण्ड अंकित हैं, वे पारम्परिक महाकाव्यों से निर्गत साँचे या लक्षण हैं। जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' को लेकर भी ऐसी ही कशमकश चली थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो उसके प्रबन्धत्व पर ही कड़ा प्रहार किया है और उसे प्रगीतों का समुच्चय घोषित कर दिया है । पण्डित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने उसे 'एकार्थ काव्य' कहा है, परन्तु डॉ. नगेन्द्र ने उसमें निहित 'महत्त्व' और 'काव्यत्व' को देखकर, विभिन्न घटकों में निहि औदात्त्य को देखकर उसे छायावादी पद्धति का महाकाव्य कहा है। प्रचलित मंचों पर अपने नाटकों को अनभिनेय घोषित करने वालों से प्रसादजी ने कहा था कि नाटक के लिए मंच बनाया जाना चाहिए, न कि मंचों के बने-बनाए ढाँचों के अनुरूप नाटक बनाए जाने चाहिए। यदि पूर्व प्रचलित साँचों में ही सर्जना सिमट कर रह जाय तो उसकी प्रगति किस प्रकार सम्भव है ? अत: समुचित यही है कि पारम्परिक साँचे को तोड़ कर युगीन संवेदना से परिचालित रचना में यदि 'महत्त्व' और 'काव्यत्व' है, तो तदनुरूप नया साँचा भी बनाया जाना चाहिए। 'मूकमाटी' के महाकाव्यत्व की परीक्षा स्वयं उससे निर्गत मानदण्ड पर किया जाना समुचित होगा। यह कहना कि इस प्रकार अराजकता फैलेगी, लोग नए-नए साँचों के अनुरूप महाकाव्य लिखने लगेगे, तो पहली बात यह है कि ऐसा हो भी तो सही । 'मूकमाटी' की भाँति नए मानदण्डों वाली रचनाएँ महाप्राण रचयिता ही कर सकते हैं, आम आदमी से सम्भव नहीं है, फलत: अराजकता का सवाल ही नहीं उठता। ऐसे प्रयास सम्भावनामयी रचना के विविध आयाम अनावृत करते हैं। पारम्परिक साँचा-महाकाव्य के अनिवार्य घटक ‘महत्त्व' और 'काव्यत्व'
___ कह सकता है कोई कि इसमें 'महत्त्व' और 'काव्यत्व' नहीं है? क्या इस काव्य का लक्ष्य जो 'अपवर्ग' है, उससे भी महत्तर लक्ष्य हो सकता है ? काव्यत्व की बात ऊपर की ही गई है। 'तुस्यतु दुर्जनन्याय' से पहले पारम्परिक साँचे को ही लें। पारम्परिक साँचे के लिए निम्नलिखित उपकरण अपेक्षित हैं :
१. इसमें जीवन का सर्वांगीण चित्रण होना चाहिए। २. इसमें एक या अनेक नायक हों। वे प्रख्यात राजवंशी हों और धीरोदात्त हों। ३. इसमें मंगलाचरण हो। ४. आठ या उससे अधिक सर्ग हों। ५. दिवा, रात्रि, पर्वत आदि का वर्णन हो । ६. सर्ग में एक ही छन्द हो, पर अन्त में छन्द परिवर्तन हो । ७. सभी सन्धियाँ हों, फलत: प्रख्यात या लोक प्रसिद्ध कथा हो । ८. वीर, शृंगार अथवा शान्त में से एक रस हो, जो अंगी हो । ९. सज्जन-असज्जन की स्तुति और निन्दा हो।
इन लक्षणों में स्पष्ट ही दो वर्ग हैं- बहिरंग और अन्तरंग । बहिरंग में- (क) मंगलाचरण (ख) सर्ग की संख्या का नियम (ग) छन्द सम्बन्धी नियम का समावेश किया जा सकता है। 'कामायनी' या 'प्रिय प्रवास' में मंगलाचरण नहीं है। जिन-जिन महाकाव्यों में वस्तु निर्देशात्मक मंगलाचरण कहा जाता है, उसमें कोई ठोस प्रमाण नहीं है। सर्ग की संख्या 'रामचरितमानस' पर ही लागू नहीं होती । छन्दों का अन्त में बदलना भी ऐसा ही बहिरंग लक्षण है । अन्तरंग लक्षणों में नवम को छोड़कर शेष आ सकते हैं।
महाकाव्य का लक्षण
'साहित्यदर्पण'कार कहता है :