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374 :: मूकमाटी-मीमांसा होते मिलते हैं, वहीं अनुभूति की रसवत्ता अपने परिणाम में नैतिक मूल्यों के साथ निमित्त के दायित्वों का परिबोध भी कराने लगते हैं। कविता ऐसे स्थलों में प्राणवत्ता की साक्ष देने लगती है।
___ जीवन के आगे प्रकृति का विराट् स्वरूप अपनी गरिमा में कहीं न कहीं उसकी सत्ता को परिभाषित करने लगता है । सत्ता के स्वरूप को दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है । कवि उसके सामने अपने को कहीं निरर्थक नहीं होने देता, अपनी सारवत्ता में वह उसकी पहचान में गा उठता है, आस्था के भास्वर स्वरों में :
“सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है बेटा ! रहस्य में पड़ी इस गन्ध का/अनुपान करना होगा
आस्था की नासा से सर्वप्रथम ।” (पृ. ७-८) पदार्थ की-सी गरिमा को कवि शाश्वत मानता है। आस्था अथवा श्रद्धा के मिस वह सम्यक् दर्शन को सम्पृक्त करता हुआ उसके महत्त्व को प्रतिपादित करने लगता है। आस्था और संगति के सम्बन्ध में वह यह मानता है कि उसकी जैसी संगति होगी, वैसी मति होगी। जलधारा धूल से मिलकर दलदल में परिणत हो जाती है । आस्था के लिए अपने भीतर एक तैयारी, एक साधना आवश्यक होगी, तभी वह आत्मसात् हो सकेगी। आस्था ही सम्यक् पथ की ओर अग्रसर करती है:
"हाँ ! हाँ !!/यह बात सही है कि,/आस्था के बिना रास्ता नहीं मूल के बिना चूल नहीं,/परन्तु/मूल में कभी/फूल खिले हैं ?/फलों का दल वह दोलायित होता है/चूल पर ही आखिर!/हाँ ! हाँ !!...इसे/खेल नहीं समझना
यह सुदीर्घ-कालीन/परिश्रम का फल है, बेटा!" (पृ. १०-११) कर्मों की स्थिति में कवि आत्मा की ममता और समता की परिणति को महत्त्वपूर्ण मानता है । कर्म का संश्लेषण और विश्लेषण आत्मा की गुणता पर आधारित है। कवि ने जीवन के तमाम परिवर्तनों की तह में इसी की समझ को स्वीकारा है । इसे जान जाने पर जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आने लगते हैं । जो जीवन के महत्त्व को नए ढंग से उस चेतना के पास ले जाकर खड़ा कर देते हैं, जहाँ ज्ञान का संस्पर्श अभावों से मुक्ति दिलाता है।
प्रकृति की उदात्तता कवि के मन में एक सम्मोहन पैदा करती है । वहीं प्रकृति और पुरुष के सम्बन्धों की अवधारणा में वह उसका विश्लेषण भी करने लगता है । एक ओर वह प्रकृति की मनोरमता पर, सौन्दर्य पर मुग्ध दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर पुरुष के अस्तित्व को देखते हुए उसे चीन्हने की कोशिश करने लगता है । प्रकृति अपनी मनोरमता को ले कण-कण में अपने प्रभाव को बिखेरती होती है। कहीं सौन्दर्य है, कहीं शक्ति है । लेकिन वहाँ लेने को कुछ नहीं है, जो कुछ है वह अर्पण ही है। अर्पण करने वाली सत्ता साधारण नहीं हो पाती। पुरुष उसे जानकर भी उसकी अपनेपन की तत्परता को, बाँट देने की महिमा को नहीं समझ पाता है । दुर्बोध को साधना के द्वारा भी जाना जा सकता है। उसकी सत्ता को, उसके चेतन पक्ष से जाना जा सकता है । ध्यानी भी उसी चेतना का आह्वान करता है । कवि दुर्बोध को ही उपस्थित करते हुए कहता है :
"प्रकृति नहीं, पाप-पुंज पुरुष है,/प्रकृति की संस्कृति-परम्परा
पर से पराभूत नहीं हुई,/अपितु/अपनेपन में तत्परा है।" (पृ. १२४) समाज के निकट माटी की महत्ता का संवेदन यह है कि वह प्रकृति का ही पर्याय है जहाँ वह सब कुछ बोलती