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________________ 358 :: मूकमाटी-मीमांसा 'मूकमाटी' के तलस्पर्शी अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आता है कि आचार्यश्री के मन में नारी के प्रति अपार करुणा और वेदना भरी हुई है। उनकी सामाजिक स्थिति से उन्हें सन्तोष नहीं है और वे चाहते हैं कि नारी की शक्ति और प्रतिभा का विकास किया-कराया जाना चाहिए। माटी की भूमिका में उनका मन कदाचित् नारी की मूकता और उसकी प्रबल सत्ता के प्रति आश्वस्त रहा है। उन्होंने माँ की इयत्ता को पहचाना है और नारी वर्ग की अहमियत को परखा है तभी तो माटी मंगल कलश बनकर सर्वोच्च पवित्र शिखर तक पहुँचती है जहाँ अध्यात्म की सुन्दर सरिता बहती है और विशुद्ध वातावरण में अपनी गहरी साँस लेती है। यह उसी का उपादान है भले ही उसे किसी निमित्त की आवश्यकता रहती हो। माँ के प्रति कवि की ममता और आदर काव्य के प्रारम्भिक पन्नों में तो है ही, पर उन्होने द्वितीय खण्ड में भी यह कहकर उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया है कि माँ अपनी सन्तान की सुसुप्त शक्ति को सचेत और साकार कर देती है सत्संस्कारों से (पृ. १४८)। इसी तरह चतुर्थ खण्ड में प्रकृति और पुरुष के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पुरुष में प्रतिबिम्बित क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं में नारी को ही प्रबल कारण माना है। उसके विकास और पतन की धुरी भी नारी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कवि ने लीक से हटकर नारी और उसके पर्यायवाची शब्दों की ऐसी सुन्दर मीमांसा की है, जिससे प्राचीन आचार्यों द्वारा किए गए इन शब्दों के अर्थ एकदम परदे के पीछे चले गए हैं और नारी की गरिमा मुखरित हो उठी है । नारी, महिला, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता, मातृ, अंगना आदि शब्दों के यदि नए अर्थ आपको देखना हो तो 'मूकमाटी' के पृ. २०१ से २०८ पलट डालिए, तब आप पाएंगे कि आचार्यश्री की दृष्टि में नारी की उपादान शक्ति कितनी तेज है। इससे भी जब उन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो आगे के पृष्ठों में उन्होंने समता की आँखों से लखने वाली मृदुता-मुदिता-शीला नारी की और भी प्रशंसा की है । ऐसा लगता है कि उन्होंने नारी की सहन- शीलता, उसके क्षीर-नीर-विवेक और स्नेहिलता को भलीभाँति पहचाना है, जिसे उन्होंने अपने काव्य में सशक्त शब्दों में उकेरा है (पृ. २०८-२०९)। ___ मैं यह अनुभव करती हूँ कि 'मूकमाटी' जैसे सुदृढ़ विशाल महाकाव्य की यह समीक्षा नितान्त अपर्याप्त है। उस पर तो कोई लिखने बैठे तो उससे भी दुगना ग्रन्थ तैयार हो सकता है । इसमें जैन धर्म और दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त तो हैं ही, पर जो विशेष बात कहनी है वह यह कि काव्य आचार्यश्री का जीवन दर्शन लेकर व्यक्ति के समक्ष उपस्थित होता है। वस्तुत: काव्य की पृष्ठभूमि में कवि ने व्यक्ति के निर्माण की कला को सुप्रतिष्ठित किया है और माटी जैसे उपेक्षित तत्त्व का आधार लेकर उसे आध्यात्मिक विकास के चरम शिखर तक पहुँचाया है, जिसे देखकर स्वर्ण कलश परेशान हो उठता है और ईयावश बहुत कुछ मंगल कलश के विरोध में आवाज़ उठाने का असफल प्रयत्न करता है । अध्यात्म के क्षेत्र में यह धन की निस्सारता का सूचक है। कुल मिला कर 'मूकमाटी एक सशक्त महाकाव्य है, जिसने जीवन के हर क्षेत्र को छुआ है और अध्यात्म से सराबोर कर दिया है । आखिर ऐसा होता भी क्यों नहीं, यह कृति अन्तत: एक निस्पृही दिग्वासी सन्त की कृति है न! हाँ, लेखनी बन्द करते-करते कबीर का ध्यान आ गया जहाँ उन्होंने माटी और कुम्भकार के बीच संवाद प्रस्तुत कर चित्रित किया है : “माटी कहे कुम्हार सों।" कबीर तो इतना ही कह सके पर हमारे विरागी सन्त ने तो उस पर एक विशाल महाकाव्य का प्रासाद खड़ा कर दिया, जिसमें प्रसाद और ओज गुण तो हैं ही, काव्य प्रतिभा से माधुर्य गुण भी इसमें कूट-कूट कर भरा है। आध्यात्मिक दर्शन और काव्य सौष्ठव का मनोरम समन्वय देखकर कौन-सा सहृदय पाठक, इसे पढ़ कर अभिभूत नहीं होगा? आइए, इसके हर पन्ने को हम समझें और आत्मविकास में उसका उपयोग करें। [तीर्थंकर (मासिक), इन्दौर-मध्यप्रदेश, दिसम्बर, १९९०]
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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